Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
४३५ उक्त दोनों भाचार्यो उक्त उल्लेखोंसे जहां यह ज्ञात होता है कि मिश्चयसे एक द्रव्यका दूसरे द्रब्यके साथ किसी प्रकारका कारक सम्बन्ध नहीं है वहाँ यह भी ज्ञात होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति कारकान्तर निरपेक्ष एकमात्र निश्चय षट्कारकोंके आलम्बनसे ही होती है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि जहाँपर इस जीवके विकल्पमें परकी अपेक्षा होती है वहाँपर रागादि विभाव-पर्यायकी उत्पत्ति होती है।
साथ ही तय्यरूप में यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक द्रव्य और उनके गुण तथा पर्यायोंका स्वरूप परस्पर सापेक्ष न होकर स्वत:सिद्ध होता है। मात्र इनका व्यवहार ही परस्पर सापेक्ष किया जाता है । यदि इनके स्वरूप पर सा माना जाने लगेसे पाक भी अस्तित्व नहीं छन सकता । यहाँ जिस तथ्यका निर्देश प्रख्य, गुण और पर्यायको लक्ष्य में रखकर किया है वही तथ्य कर्तत्वादि धमोंके विषय में भी जान लेना चाहिए ।
यद्यपि पर्यायें स्वकालके सिवाय अन्य कालमें कथंचित् असत् होती हैं, इसलिए पर्यायाथिक नयसे उनमें परस्पर व्यतिरेक दिखलाने के अभिप्रायवश उनकी उत्पत्ति में कारकोंका व्यापार स्वीकार किया गया है यह ठीक है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अपने-अपने काल में उनका वह स्वरूप किसी अन्यसे जायमान हुआ है, क्योंकि उत्पादादि त्रिरूपमयता यह प्रत्येक द्रव्यका स्वतःसिद्ध स्वख्य है, अन्यण बह द्रव्यका स्वरूप नहीं बन सकता ।
इस प्रकार वस्तुके स्वरूप और उसमें रहनेवाले कर्ता आदि धर्मों की अपेक्षा विचार करनेपर प्रत्येक वस्तुका स्वरूप और कर्ता आदि धर्म निश्चयरूप प्रमाणित होते हैं और उनको जाननेवाला ज्ञान निश्चय नय संज्ञाको प्राप्त होता है। निश्चयनयके कथन में अभेदकी मुख्यता है इतना यही विशेष समझना चाहिए।
इस प्रकार निश्चय और व्यवहाररूप अर्थ क्या है, तथा उन्हें ग्रहण करनेवाले नयोंका स्वरूप क्या है इस बात का प्रवृत में हमने जो प्रमाण सहित विवेचन किया है, उसी विषयको स्पष्ट करते हुए पंडितप्रबर टोहरमलजी अपने मोक्षमार्गप्रकाशकमें लिखते हैं
तहाँ जिन आगम विप निश्चय-प्यवहाररूप वर्णन है। तिन विषै यथार्थका नाम निश्चय है, उपचारका नाम व्यवहार है।
-अधिकार पृष्ट २८७ व्यवहार अभूतार्य है। सत्य स्वरूपको न निरूप है। किसी अपेक्षा उपचारकरि अन्यथा निरूप है। बहुरि शुन्छ नय जो निश्चय है सो भूतार्थ है, जैसा वस्तुका स्वरूप है तैसा निरूपै है।
-अधिकार पृष्ठ ३१९ एक ही द्रव्यके भाषको तिस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है। उपचारकरि सिस सम्यके भावको अन्य ठाके भादस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है।
--अधिकार पृष्ट ३६९ ३. निश्चयमयमै व्यवहाररूप अर्थको सापेक्षताका निषेध इस प्रकार निश्चयनय, व्यवहारनय और उनके विषयोंका प्रकृतमें उपयोगी निरूपण करके तत्काल उनकी परस्पर सापेक्षता एवं निरपेक्षताके विधयमें विचार करते है। आप्तमीमांसा कारिका १०८ में प्रत्येक वस्तुको अनेकान्त स्वरूप न मालकर सर्वथा सद्रूप या सर्वथा असद्रूप, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य आदि