Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा भी दे कभी अहंकारी नहीं बनते हैं। किन्तू दूसरोंद्वारा किये गये उपकारके प्रति हमेशा कृतज्ञ हो रहा करते हैं । आचार्य विद्यानन्दीने अपने अन्ध आप्तपरीक्षाका आदमें मंगलाचरण करते हुए यही लिखा है कि 'न हि कृतमुपकार साधवी विस्मरंत्ति' अर्थात् माधु ( सम्यग्दृष्टि ) पुरुष अन्य द्वारा कृत उपकारको कभी नहीं भलते हैं। इसे गंचास्निकाय (रायचन्द्रग्रन्धमाला पृष्ठ ५ पराजयसेनावाने भी उद्धृत किया है।
__ आगे आप लिखते है कि स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें और भट्टाकलंकदेव तथा आचार्य विद्यानन्दीने अपशनो और अहमहम्रीम 'दोषावरणग्रोहानिः' इत्यादि कथन उपस ( कार्य केवल उपानान कारण ही निष्पन्न हो जाया करता हूँ निमिस तां वहाँ केवल अपनी हाजिरी दिया करते है) तथ्यको ध्यानमें रखकर ही किया है, क्योंकि उक्त आचार्यों 'उपादानस्य उत्तरीभवनात्' इत्यादि कथन उक्त कार्यकारणपरंपराको ध्यान में रखकर ही किया है।
आपके इस लेख में आपके द्वारा यह माना जाना कि 'उपादानस्य उत्तरीभवनात्' यह कथन नवत आचार्योका है सोनो ठीक है. क्योकि उपादान हा उत्तर पर्याय का परिणत होता है। परन्तु वह उत्तर पर्याय निमिसापेक्ष उत्पन्न नहीं होता है. ऐमा निर्णय तो उक्त वाक्यमे नहीं किया जा सकता है। और जब 'दोषावरणयोहानिः' इत्यादि कारिकाको टीका अष्टमहस्रोमें भी श्री स्वामी विद्यानन्दाने निमित्तोंकी उपयोगिताको स्पष्टरूपसे स्वीकार किया है तो कार्य केवल उपादानके बल पर ही उत्पन्न हो जाता है' इसको सिद्धि के लिये 'दोषावरणग्रोहानिः' इत्यादि इरा कारिवाका और इसकी टीका अष्टपती तथा असहस्रीका प्रमाणरूपसे आपके द्वारा उपस्थित किया जाना गलन ही है । अष्टमहस्रीका वह कथन निम्न प्रकार है
चनममामादज्ञानादिर्दोषः स्वपरणामहेतुः (अष्टाती) । न हि दीप एव आवरणमिति प्रतिपादने नाशिाया पानणयोतिलिहितासामर्थन् । सत्तामादाररणास् पौद्गलिकलानाबरणादिकमणी भिन्न स्वभावस्वाज्ञानादिदोषोऽम्यूयते । तद्धेतुः पुनरावरण कर्म जीवस्य पूर्वस्त्रपरिणामश्च । स्वपरिणामहेतुकः स्वाज्ञानादिरिन्ध्ययुक्तं, तस्य काहाचिकत्याविरोधाजीवरमादिवत् । परपरिणामहेतुक एवेत्यपि न म्यवतिष्ठते, मुक्तात्मनोऽपि तत्प्रयंगात्। सर्वस्य कार्यस्योपादानसहकारिसामग्रीजन्यतयोपगमात्तथा प्रतीतेश्च । तथा च दोषो जीवस्य स्वपरपरिणाम-हेतुकः, कार्यत्वात् माषपाकवत् ।
अर्थ-आचार्य समन्तभद्र ने कारिका, 'दोषावरणवोः' ऐसा द्विवचन पदका प्रयोग किया है, इसलिये आवरणरूप पोद्गलिक जानाथरणादि कमोसे भिन्न हो अज्ञानादि दोषोंको जानना चाहिए। उन अजानादि दोषोंकी उत्पत्तिका हेतु आवरण कम तथा जीवके अपने पूर्व परिणामको जानना चाहिये । अज्ञानादि दोष केवल जीयके स्वपरिणामनिमितक ही है-ऐमी मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरहसे तो उन अज्ञानादि दोषोमें जीवत्वस्वभावकी तरह अनादिनिबनताको प्रशक्ति हो जायगी। इसलिये यदि एरपरिणाम निमितक हो अज्ञानादि दोषोंको माना जाय, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरहसे मुक्त आत्माओंमें भी अनानादि दोषोंकी आपत्तिका प्रसंग उपस्थित हो जायगा । दुगरी बात यह है कि सम्पूर्ण कार्योकी उत्पति उपादान और सहकारी कारण सामाग्री से ही देखी जाती है तथा प्रतोति भी ऐसी ही होती है, इसलिये जीवमें जो अशानादि दोष उत्पन्न होते हैं वे स्त्र अर्थात् उपादान और पर अर्थात सहकारी दोनों कारणोंके बल पर ही नरन्न होते हैं, क्योंकि वे कार्य है जिस तरहकी कार्य होनेकी वजहसे उड़दका पाक उपादान और निमित्त उभय कारणोंके बलपर होता हुआ देखा जाता है ।
जसका दृष्टान्त ऊपर भी राजचा तिकके एक उद्धरणमें दिया गया है ।