Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
४२१. भगवान् कुन्दकुन्दने जीवपरिणामइंदु" इत्यादि कथन तारा उपादान और निमित इस प्रकार दोनों कारणोंके बलसे कार्योत्पत्तिको स्वीकार किया है, अतः उनके उस कथनसे आपके पक्षकी पुष्टि होना असंभव ही है। 'मसंख्यातप्रदेशी जीवको जब जैसा शरीर मिलता है तब उसे उस रूप परिणमना पड़ता है' आगमके इस कथनको स्वीकार करते हा आपने आगे जो यह लिखा है कि 'यहाँ भो उपादान और निमितोंकी रवन पगार कार्य मा स्वीकार कर लेने पर ही मम्पक व्यवस्था बनती है।' इस कथनके समर्थन में जो हेतुरूप कथन आपने अपने उत्तर में किया है कि 'पयोंकि उपादातरूप जीवमें स्वयं परिणमनकी योग्यता है, अतः वह शरीरको निमित्तकर स्वयं संकोच-विस्ताररूप परिणमता है। इसमें जीवके संकोच-विस्तार रूप परिणमनको उसकी अपनी तदनुकूल योग्यताके आधार पर स्वीकार करके भी उसमें आप यदि अन्त्रय तथा व्यतिरकके आधार पर शरीरको महकारिताको भी स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे तथा आपके मध्य कार्य-कारणभावको लेकर कोई विवाद ही नहीं रह जाता है, परन्तु दुःख इस बात का है कि आगे अन्त में आपने 'तादृशो जायते बुद्धः' इत्यादि पद्मका उल्लेख करके अपनी गल गान्यताको ही पुष्ट करनेका प्रयत्न किया है। और जब आप इस पद्य को भट्टाकलंकक्षेत्र से समश्रित कहते हैं तो हमारे आश्चर्यका फिर कोई ठिकाना ही नहीं रह जाता है । इन्हीं बातोंको हम आगे सर कर रहे हैं। वह पद्य पूरा निका प्रकार है:
ताशी जायते बुद्धिव्यवसायश्च तादृशः ।
सहायास्तारशाः सन्ति बादशी भवितव्यता ।। आपने इसका जो अर्थ किया है वह निम्न प्रकार है:
जैसी होनहार होती है उसके अनुसार बुद्धि हो जाती है, पुरूषार्थ भी वैसा होने लगता है और सहायक कारण (निमित्तकारण) भंः वैसे मिल जाते है।
स्वामी समन्तभद्र ने जो आप्तमीमांसा लिखी है उसमें होने तत्वावस्थाको अनेकवि और स्यादवादको दृष्टि में रखकर हो स्थापित किया है। इस आपल-मीमांग के अष्टम परिच्छेदम नामी समन्तभद्रने ८८ ८९, ९०, और ह१ वीं कारिताओं द्वारा देव और पुरुषार्थ दोनोगे मिलकर अर्थसिद्धि हआ करती है इस सिद्धान्तका विवेचन किया है।
प्रथम कारिकाम उन्होंने केवल देवमात्रसे अर्थ मवि मानने वाली के विधान में जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि पुरुषार्थ के बिना केवल देवमासे यदि अर्थसिटि स्वीकार की जाय तो देवकी उत्पतिमें जो पुण्य और पापरूप आचरण ( पुरुषार्थ) को कारण माना जाता है उसकी संगोत किस प्रकार होगी? यदि कहा जाय कि देवकी उत्पत्ति सससे पूर्ववर्ती देवसे मान लेनेपर पुरुषार्थसे देवकी उत्पत्तिकी असंगतिका प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा तो इस तरह देवसे देवान्तरकी उत्पत्ति परंपरा चाल रहनेक कारण मोक्ष के अभावका ही प्रसंग उपस्थित हो जायगा तथा पुण्यरूप, पापरूप और धर्म जीवका पुरुषार्थ निरर्थक ही हो जायगा ।
द्वितीय कारिकामे उन्होंने कंवल पुरुषार्थमात्रसे अचगाद्ध माननेवालीके. विषयमे जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि देवके बिना केबल पुरुषार मात्रसे यदि असिद्धि स्वीकार की जाय तो पुरुषार्थको उत्पत्ति में जो देवको कारण माना जाता है उसकी संगति किम प्रकार होगी? यदि कहा जाय कि पुरुषार्थकी उत्पत्तिको भी पुरुषार्थमे मान लेनेपर देवसे पुरूषार्थको उत्पत्तिकी असंगतिका प्रश्न हो उपस्थित नहीं होगा तो इस तरहसे फिर सभी प्राणियों में पुरुषार्थको समान सार्थकताका प्रसंग नस्थित हो जायगा जो कि अयक्त होगा। कारण कि अनेक प्राणियों द्वारा समान पुरुषार्थ करने पर भी जो फल वैषम्य देखा जाता है वह वैवको अर्थसिद्धिम कारण माने बिना संगत नहीं हो सकता है।