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___'तुम्हारी बात सुनकर मुझे ऐसा लगा-एक जीरे का कण कहता है कि मेरु के साथ मेरी तुलना करो। जीरा बड़ा है या मेरु पर्वत? तुम कभी तो मृगांक की बात करते हो और कभी श्रेणिक की। कहां श्रेणिक कहां मृगांक और कहां मैं रत्नचूल? तुम किसके साथ तुलना कर रहे हो? क्या जीरे की मेरु के साथ तुलना कर रहे हो? तुम नहीं जानते मैं विद्याधरों का स्वामी हूं और श्रेणिक भूमि पर रहने वाला है।'
'कुमार! हम विद्याधर आकाश मार्ग में चलने वाले हैं, वायुयान का प्रयोग करने वाले हैं। श्रेणिक भूमि पर पैर घसीटते-घसीटते चलने वाला है, पूरी चप्पल भी नहीं उठा पाता होगा। तुम कहां तुलना कर रहे हो? श्रेणिक से क्या डरा रहे हो? हमारे बल और सामर्थ्य में कोई तुलना नहीं है। अब तुम मौन हो जाओ। चले जाओ। ज्यादा रहना तुम्हारे हित में नहीं होगा।' यह कहकर रत्नचूल एकदम गंभीर बन गया।
_ जम्बूकुमार बोला-'रत्नचूल! मैं जो कह रहा हूं, तुम्हारे हित के लिए कह रहा हूं। पर लगता है तुम्हारे मन में इतना मात्सर्य है, इतनी ईर्ष्या है कि उस पर एक बूंद भी अमृत की टिक नहीं पा रही है। अपने हित की बात भी तुम सुन नहीं पा रहे हो। तुम्हें यह घमंड है कि हम आकाश में उड़ने वाले हैं। आप इतना घमंड न करें। कौआ भी आकाश में उड़ता है। आकाश में उड़ने से कोई बड़ा बन जाए तो कौआ भी बड़ा बन जाएगा। कौआ आकाश में उड़ता है पर एक बाण लगता है, नीचे गिर जाता है। तुम घमंड मत करो। जब तक मेरा यह भुज-दंड तुम्हारे सिर पर नहीं आ रहा है तब तक घमंड करते हो। जब यह भुज-दंड शिर पर आएगा, आकाशगामित्व काम नहीं देगा, विमान काम नहीं देगा।'
वायसस्यापि विद्येत, वियद्वामित्वमंजसा।
सोऽपि जर्जरितो बाणैर्दृष्टो भूमौ पतन्निह।। कुमार ने स्पष्टोक्ति कर दी। वह बात बिल्कुल शांत स्थिति में कर रहा है। न भय, न आवेश, न उद्वेग।
रत्नचूल ने सोचा-यह कुमार ऐसे नहीं मानेगा। एक बिगुल बजाई, एक संकेत किया। चारों ओर सैनिक ही सैनिक आ गए, पूछा-'किं करोमि? क्या करें? आदेश दें।'
रत्नचूल ने कहा-'इस कुमार को बाहर निकालो।'
सैनिक पास में आए, पर उसे हाथ लगाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही है। पता नहीं क्या हुआ, कोई हाथ आगे नहीं बढ़ा पा रहा है।
रत्नचूल ने देखा-क्या हो गया? सब स्तब्ध क्यों खड़े हैं?
एक विद्या होती है स्तंभनी विद्या। उसका प्रयोग करो, जो जहां है, वह वहीं स्तब्ध खड़ा रह जाएगा। जहां हाथ हैं, पैर हैं, सब वहीं वैसे ही रह जाएंगे। कुछ भी प्रकंपन नहीं हो सकेगा। ये जितने प्रक्षेपास्त्र, अणुअस्त्र बनाए जा रहे हैं, कोई स्तंभनी विद्या का प्रयोग करे तो सब निकम्मे हो जाएंगे। कोई चल ही नहीं पाएगा।
सैनिकों को लगा इसके पास कोई स्तंभनी विद्या है। हमारे हाथ उठ नहीं रहे हैं। रत्नचूल बोला-'इसको गलहत्था देकर निकालो।' जम्बूकुमार ने कहा-'निकालने की जरूरत नहीं है। मैं जा रहा हूं। मेरे पीछे सब आ जाओ।'
गाथा परम विजय की
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