________________
उपाध्याय विनयविजयजी ने लिखा, वह विचित्र सा लगता हैप्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नंदनानंदनानां, रम्यं रूपं सरसकविता चातुरी सुस्वरत्वम्। नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः, किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिः धर्मकल्पद्रुमस्य।।
धर्म एक कल्पवृक्ष है। उसके फलों का क्या बताएं? विशाल राज्य, सुंदर स्त्री, अच्छा पुत्र, सुन्दर रूप, सरस कविता, चातुर्य, अच्छा स्वर, नीरोगता, गुण-परिचय, सज्जनता, सुबुद्धि-ये सब धर्म कल्पवृक्ष के फल हैं। इतने फल तो बता दिए, फिर कहा-और क्या-क्या बताएं?
धर्म कल्पवृक्ष का कौन सा फल अच्छा नहीं लगता? एक चिन्तनशील आदमी को भ्रम हो जाता है कि क्या धर्म का यही काम है? बड़ी उलझन पैदा हो जाती है। कुछ दिन पहले एक युवक आया। मैंने कहा-क्या धर्म की आराधना करते हो?'
युवक ने सीधा उत्तर दिया-'धर्म में बड़ी कन्फ्यूजन है। मैं धर्म का नाम लेता हूं तो कन्फ्यूज हो
जाता हूं।'
गाथा परम विजय की
मैंने कहा-'इतनी क्या कन्फ्यूजन है?'
युवक बोला-'बड़ी कन्फ्यूजन है। कभी तो कहते हैं माला फेरो, कभी कहते हैं लक्ष्मीजी की पूजा करो। कभी कहते हैं-अमुक देवी-देवता के पास जाओ। अब किस-किस को मानें? कहां-कहां जाएं? क्या करें?'
__ मैंने कहा-'कन्फ्यूजन इसीलिए है कि तुमने कभी धर्म को समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। धर्म का मुख्य फल है-निर्जरा। धर्म का मुख्य फल है-संवर। आश्रव का निरोध, इच्छा का निरोध, प्रवृत्ति का निरोध
और पुराने संस्कारों का शोधन यह धर्म का फल है और जो कुछ मिलता है, वह धर्म का मुख्य फल नहीं है, प्रासंगिक फल हो सकता है।'
फल दो प्रकार का होता है एक मुख्य फल और एक गौण फल। लोग खेती करते हैं। किसलिए करते हैं? बाजरी, गेहूं, चावल आदि अनाज के लिए। यह खेती का मुख्य फल है। आचार्य सोमदेव ने बहुत सुंदर लिखा है
यद्भक्तेः फलमर्हदादि पदवी, मुख्यं कृषेः शस्यवत्।
चक्रित्वत्रिदशेन्द्रतादि तृणवत्, प्रासंगिकं गीयते।। जैसे कृषि का मुख्य फल है धान्य की उत्पत्ति और उसका प्रासंगिक फल है तृण आदि का मिलना। वैसे ही भक्ति का मुख्य फल है अर्हत् आदि पदवी की प्राप्ति और उसका प्रासंगिक फल है चक्रवर्तित्व, इन्द्रत्व आदि का प्राप्त होना।
संवर से धर्म होता है, निर्जरा से धर्म होता है, उसके साथ पुण्य का बंध भी होता है। राज्य आदि सारे पुण्य के फल हैं, न कि धर्म के फल। अच्छा योग मिला, अच्छी सम्पदा मिली, सारा अच्छा वातावरण मिला, सफलता मिली यह सारा भाग्य का, पुण्य का फल है न कि धर्म का फल किन्तु जहां भेद नहीं करते हैं वहां सबको एक मिला देते हैं।
आचार्य भिक्षु ने बहुत स्पष्ट लिखा-गेहूं की खेती की, गेहं हुआ और साथ में खाखला भी हुआ। यह