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पराधीन होकर, विवश होकर जो भोगों को त्यागता है वह त्यागी नहीं कहलाता। साहीणे चयड़ भोए से हु चाइत्ति वुच्चइ ।
जो स्वाधीन होकर अपनी स्वतंत्र इच्छा से भोग का त्याग करता है वह साधु होता है। 'महानुभाव! हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से साध्वी बन रही हैं।'
नवयौवनाओं के हावभाव, मनोभाव और मनोबल को देखकर प्रभव को आश्चर्य हुआ। प्रभव बोला'कुमार! इन सबको तुमने क्या घूंटी पिला दी? कैसे बदला इनको ?'
'प्रभव! मैं चमत्कार में विश्वास नहीं करता। मैंने कोई जादुई डंडा नहीं घुमाया। मैंने इनकी चेतना को जगाया है।'
सबसे बड़ी बात है किसी व्यक्ति की चेतना को जगा देना । जब चेतना जग जाती है, तब किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं रहती। अपने आप सारा काम ठीक होता है।
'कुमार! कैसे जगाया तुमने?'
'प्रभव! मैंने इनको जन्म और मृत्यु का रहस्य समझाया, सुख और दुःख का रहस्य समझाया। प्रेय और श्रेय का रहस्य समझाया, ब्रह्मचर्य का रहस्य समझाया और ये अपने आप तैयार हो गईं। '
'प्रभव! जब कोई रहस्य समझ लेता है तो तैयार हो जाता है। '
आचार्य भिक्षु मांढा से विहार कर कुशलपुर की ओर जा रहे थे। मार्ग में कुछ अपशकुन हुए इसलिए उन्होंने दिशा बदल दी। वे नीमली के मार्ग पर आ गए। मुनि हेमराजजी उस समय गृहस्थ अवस्था में थे। वे भी उसी दिशा में जा रहे थे। वे कुछ आगे थे और आचार्य भिक्षु कुछ पीछे चल रहे थे। आचार्य भिक्षु ने आवाज दी- 'हेमड़ा ! हम भी आ रहे हैं।'
आचार्य भिक्षु की पुकार सुन हेमराजजी एक वटवृक्ष के नीचे रुक गए। मारवाड़ यात्रा में हमने भी उस वटवृक्ष को अनेक बार देखा है। आचार्य भिक्षु के वहां पहुंचते ही हेमराजजी ने वंदना की। आचार्य भिक्षु ने कहा-'हेमड़ा! आज हम तुम्हारे लिए ही आए हैं।'
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हेमराजजी - 'स्वामीनाथ ! भले
पधारे। '
आचार्य
भिक्षु—'हेमड़ा !
साधुपन लूंगा, साधुपन लूंगा - इस प्रकार ललचाते हुए तीन वर्ष हो
गए। अब तू पक्की बात कर। '
बाद?'
'स्वामीजी! साधुपन स्वीकार
करने का विचार पक्का है। '
'मेरे जीते जी लेगा या मरने के
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गाथा
परम विजय की
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