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गाथा परम विजय की
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आकर्षण और विकर्षण-ये दो शब्द हमारी मानसिक अवस्था को बतलाते हैं। किस वस्तु के प्रति हमारा आकर्षण है? किस वस्तु के प्रति हमारा विकर्षण है? हम किस वस्तु से अलग रहना चाहते हैं, दूर रहना चाहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति इसका निरीक्षण कर सकता है कि मेरा ज्यादा लगाव, ज्यादा आकर्षण किसके साथ है। किसी का मकान के प्रति बहुत होता है। अच्छा बढ़िया घर बना लें, बड़ा आकर्षण रहता है। किसी का वस्त्र के प्रति आकर्षण रहता है, किसी का भोजन के प्रति रहता है, किसी का अपने परिवार के सदस्य के प्रति रहता है, किसी का मित्र के साथ रहता है। आकर्षण की कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं की जा सकती। अनेक व्यक्तियों का अनेक वस्तुओं के साथ भिन्न-भिन्न आकर्षण होता है।
अलक्ष्यं लक्ष्यसंधानं–एक प्रयोग होता है ध्यान में - देखो बाहर और लक्ष्य भीतर रहे। आंख खुली है। दूसरों को यह लगता है कि किधर देख रहा है और वह देख रहा होता है अपने भीतर । अलक्ष्यं लक्ष्यसंधानंयह ध्यान का बहुत विशिष्ट प्रयोग माना जाता है। इसमें चौबीस घंटा ध्यान एक केन्द्र पर लगा रहता है।
एक होता है अजपाजप। एक जप बोलकर किया जाता है-- णमो अरहंताणं', 'ऊं अर्हम्', 'ऊं भिक्षु' 'ऊं शांति' आदि। एक होता है अजपाजप | बोलने की जरूरत नहीं होती। ऐसा अभ्यास हो गया कि वह जप प्राण के साथ जुड़ गया। वह २४ घंटा चलता है, नींद में भी चलता रहता है। भोजन करो तो चलता रहता है। किसी के साथ बात करो तो जप चलता रहता है। वह होता है अजपाजप ।
जम्बूकुमार के आत्मा का अजपाजप हो गया। हर समय उसका ध्यान आत्मा पर टिका हुआ है।
बहुत कठिन है आत्मा पर केन्द्रित होना । इसलिए कठिन है कि दिखाई दे रहा है, वह सारा पुद्गल ही पुद्गल है। मकान दिखाई दे रहा है, वह पुद्गल है। कपड़ा, पत्थर आदि दिखाई दे रहा है, वह पुद्गल है। यह शरीर दिखाई दे रहा है, वह पुद्गल है। आदमी पुद्गल के प्रति आकृष्ट होता है। यह स्वाभाविक बात है-'पुद्गलैस्पुद्गलाः तृप्तिं यान्त्यात्मा पुनरात्मना'।
पुद्गल पुद्गल से तृप्त होता है और आत्मा आत्मा से तृप्त होती है।
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