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एक पिता बोला-'जम्बूकुमार! दीक्षा ले रहे हो।'
'हां।'
गाथा परम विजय की
'हमने पहले ही कहा था कि दीक्षा और इन कन्याओं के साथ विवाह-दोनों विरोधी बात है। हमने सोचा था शायद तुम्हारा यह एक बचकानापन है। तुम मान जाओगे पर लगता है-तुमने अपनी जिद नहीं छोड़ी। तुम क्या सचमुच दीक्षा ले रहे हो?'
जम्बूकुमार बोला-'पिताश्री! सचमुच और क्या होता है? तैयारी है।' पिता ने अपनी पुत्री की ओर मुंह किया, पूछा-'तुम क्या करोगी पीछे?' वह विश्वास भरे स्वर में बोली-पिताश्री! पीछे कौन है? सब साथ हैं।' 'क्या तुम भी साध्वी बनोगी?' 'हां, पिताश्री! 'क्यों बनोगी?' 'पिताश्री! प्रियतम ने मेरी आंख खोल दी।' 'क्या इतने दिन बंद थीं?' 'हां, बंद थीं इसलिए आपके साथ रही। अब आंख खुल गई तो इनके साथ जा रही हूं।' 'दीक्षा क्यों ले रही हो तुम?' 'पिताश्री! मुझे भेद-विज्ञान हो गया है।'
भेद-विज्ञान साधना का बड़ा सूत्र है। भेद-विज्ञान का एक अर्थ है कायोत्सर्ग। 'आत्मा भिन्न शरीर भिन्न', इसका ज्ञान हो जाना उसका नाम है भेद-विज्ञान।....आचार्य कुंदकुंद और उनकी परंपरा के आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश में बहुत मार्मिक लिखा
भेदविज्ञानतो सिद्धा, सिद्धा य किल केचन।
भेदाविज्ञानतो बद्धाः, बद्धा ये किल केचन।। आज तक भी जितने जीव सिद्ध हुए हैं, मोक्ष में गये हैं वे सब भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं। जो आज तक बद्ध हैं, वे ही हैं, जिन्हें भेद-विज्ञान नहीं हुआ है। जैसे ही भेद-विज्ञान होता है, मोह की जंजीरें टूट जाती हैं, सांकल और बंधन टूट जाते हैं, दुनिया का दृश्य बदल जाता है। ___'पिताश्री! प्रियतम ने मोह की जंजीरें तोड़ दी, भेद-विज्ञान करा दिया और हमें यह अनुभव करा दिया-तुम आत्मा हो, शरीर नहीं हो।' ___तुम आत्मा हो, शरीर नहीं यह साधना का बड़ा महत्त्वपूर्ण सूत्र है, इसका प्रयोग चेतना को ऊर्ध्वमुखी बना देता है। हर बात में यह सोचो-मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं हूं। ___ एक महिला आई, बोली-'महाराज! आज घर में लड़ाई हो गई, कलह हो गया, बोलचाल हो गई। मैंने अपनी समस्या योग शिक्षिका से बताई, योग शिक्षिका कहती है-तुम शरीर में चली गई। जब-जब शरीर
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