Book Title: Gatha Param Vijay Ki
Author(s): Mahapragya Acharya
Publisher: Jain Vishvabharati Vidyalay

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Page 372
________________ में जाती हो तब-तब लड़ाई होती है, कलह और संघर्ष होता है और जब-जब आत्मा में आती हो, सारी । लड़ाइयां समाप्त हो जाती हैं।' शरीर में जाने का मतलब है-मोह में चले जाना और शरीर से ऊपर उठने का । मतलब है-वीतरागता की ओर चले जाना। जब-जब आदमी शरीर में जाता है तब हिंसा, झूठ, वासना, चोरी, कलह, कदाग्रह, राग, द्वेष, ईर्ष्या-ये सारी घटनाएं घटित होती हैं। जब-जब आत्मा में आता है तब उसका प्रतिपक्ष हो जाता है और वह है भेद-विज्ञान। ____अच्छा जीवन जीने का यह बड़ा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। एक आदमी खेती करने जाता है, सफाई करता है, पौधों को काटता है या वृक्ष के पास फल लेने जाता है या बाड़ी में जाकर साग-सब्जी के पौधों को तोड़ता है। एक क्रम यह है-सीधा गया, तोड़ लिया। एक प्रथा यह चलती है, आज भी कुछ लोग करते हैं-पौधे के पास जाकर कहेंगे, 'भाई! तुम क्षमा करो। मैं तुम्हारे साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहा हूं किन्तु मेरे जीवन की आवश्यकता है इसलिए ऐसा व्यवहार कर रहा हूं। मेरा और कोई उद्देश्य नहीं है। मैं अनावश्यक हिंसा बिल्कुल नहीं करूंगा। तुम मुझे क्षमा करना।' विनम्रतापूर्वक यह कहकर उस पौधे को तोड़ते हैं। भावना में कितना अंतर आ गया। एक ओर प्रमाद है तो एक ओर जागरूकता है, मन में अनावश्यक हिंसा न करने की भावना है। आचार्य भिक्षु ने इस सिद्धांत को बहुत अच्छी तरह से समझाया। एक पश्चिमी लेखक ने लिखा-'अल्प-हिंसा अच्छी है।' थोड़ी हिंसा करना जैनों की दृष्टि से अच्छा है। हमने इस पर टेप्पणी की यह लेखन ठीक नहीं है। इस पर आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण स्पष्ट है थोड़ी हिंसा करना अच्छा गाथा नहीं है। हिंसा का अल्पीकरण करना अच्छा है। भाषा और भाव में बहुत अंतर आ गया। हम हिंसा को अच्छा परम विजय की नहीं मान रहे हैं किन्तु हिंसा के अल्पीकरण को अच्छा मान रहे हैं, हिंसा को कम करना अच्छा है। भगवान महावीर का सिद्धांत है-आवश्यक हिंसा भी धर्म नहीं है। वह करनी पड़ती है। अपनी विवशता को स्वीकार करो और सामने वाले प्राणी से क्षमा मांगो-विवश होकर मुझे यह करना पड़ रहा है। ___ यह एक भेद-विज्ञान की भावना है। जब भेद-विज्ञान आ गया-मैं आत्मा हूं। मुझे आत्मा में रहना है नौर यह शरीर तो साधन है, इसको मात्र चलाना है, और कुछ नहीं। जिसमें यह भेद-विज्ञान हो गया, वह चायेगा तो किस भावना से खायेगा? भावना यह होगी-व्रणसंजन एव भूयं' जैसे शरीर के व्रण हो गया। ण को ठीक करने के लिए गुड़-आटे की लूपरी बांधते हैं। क्या व्रण के लिए लूपरी अथवा हलवा खिला हे हैं? नहीं, व्रण का उपचार करते हैं। आजकल पेट्रोल डालते हैं कार में, पुराने जमाने में गाड़ी के खंजन गाते थे इसलिए कि चक्का घिसे नहीं, ठीक से चलता रहे। साधक इसी भावना से भोजन करे कि मात्र रीर चलता रहे और ध्यान आत्मा में रहे। कन्याएं बोलीं-पिताश्री! प्रियतम ने भेद-विज्ञान का मर्म हमें समझा दिया है इसलिए अब हम त्मिस्थ हैं, शरीरस्थ नहीं हैं।' एक होता है शरीरस्थ और एक होता आत्मस्थ। जो शरीरस्थ होता है, वह शरीर में ही रहता है. शरीर ही जीता है, उसका आत्मा की ओर ध्यान ही नहीं जाता। जो आत्मस्थ होता है, वह आत्मा में रहता है, त्मा में जीता है। वह शरीर को आत्मा का आवास मात्र मानता है।' ७४

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