Book Title: Gatha Param Vijay Ki
Author(s): Mahapragya Acharya
Publisher: Jain Vishvabharati Vidyalay

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Page 383
________________ व्यवहार का पाठ पढ़ाया कहं चरे कहं चिठे, कहमासे कहं सए। कहं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई। जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई। जयं चरे-संयमपूर्वक चलो, जयं चिठे-संयमपूर्वक खड़े होओ, जयमासे-संयमपूर्वक बैठो, जयं सए–संयमपूर्वक सोओ। जयं भुंजे-संयमपूर्वक खाओ। जयं भासे–संयमपूर्वक बोलो। ___ संयमपूर्वक बैठना, संयमपूर्वक सोना और संयमपूर्वक खाना-इनका बहुत बड़ा विज्ञान है। सुधर्मा स्वामी ने सब शैक्ष साधुओं को स्थविरों के पास सौंप दिया। शैक्ष साध्वियों को महासती के निर्देशन में साधना का निर्देश दिया। जंबू के शिक्षण का दायित्व स्वयं सुधर्मा ने लिया। दोनों का गहरा संबंध है। वह संबंध कोई आज का नहीं है, पांच जन्म से बराबर चल रहा है। एक जन्म में भवदेव और भावदेव दोनों भाई। फिर दोनों मरकर देव हुए। वहां से च्यवन कर फिर राजकुमार बने। वहां से मरकर फिर देव हुए और पांचवें भव में एक सुधर्मा बन गया, एक जंबू बन गया। यह जो आकर्षण होता है, न जाने कितने जन्मों के संस्कार उसके पीछे रहते हैं, बोलते हैं। आकर्षण अकारण नहीं होता, अहेतुक नहीं होता। हम वर्तमान को जानते हैं, अतीत को नहीं जानते-मेरा किसके साथ क्या संबंध रहा है? यह मत जानो पर आकर्षण से पता लग जाता है। इसके प्रति इसका ज्यादा आकर्षण है तो जरूर कोई न कोई संबंध रहा है। सुधर्मा स्वामी ने स्वयं जम्बूकुमार को तैयार करना शुरू किया। उनको भी योग्य शिष्य की अपेक्षा थी। आचार्य के सामने सबसे बड़ा प्रश्न होता है अपने उत्तराधिकारी का। परम्परा को चलाना है तो योग्य उत्तराधिकारी की खोज जरूरी है। यदि योग्य उत्तराधिकारी मिल जाए तो आचार्य का जीवन सफल है और न मिले तो समस्या रहती है। जंबू की दीक्षा से सुधर्मा को परम संतोष का अनुभव हुआ। उनके मुख पर आश्वस्ति और निश्चिंतता की रेखाएं उभर आईं....और....उन्होंने ज्ञान-वैभव को संक्रांत करने का निश्चय कर लिया। गाथा परम विजय की ICIAnyHAARRADISHS...

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