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'भाई ! तुम इस सचाई को समझो कि अपने कर्म का परिणाम स्वयं व्यक्ति को भोगना होता है । तुम कर्म कर रहे हो तो दुःखी भी तुम बनोगे । भोग तो सब कर रहे हैं पर तुम्हारे दुःख में कोई सहभागी नहीं है।' 'महाराज! आपका यह कथन सही नहीं लगता। परिवार के सभी सदस्य : बनते हैं। मुझे कभी अकेलापन अनुभव नहीं होता।'
रहर सुख-दुःख में सहभागी
'भाई! तुम एक काम करो। घरवालों के पास जाओ, उनसे पूछो - मैं डाका डालता हूं, बुरा काम करता हूं मुझे पाप का भी बंध होता है । जब पाप कर्म भुगतना पड़ेगा तब आप भी उसमें भागीदार बनेंगे ?' 'महाराज ! वे अवश्य बनेंगे।'
'तुम मेरा कहना मानो, एक बार घर जाओ, अपने परिवारजनों से पूछो। तुम्हारा कथन कितना सच है, इसकी परीक्षा भी हो जाएगी।'
संत के आग्रह पर डाकू तत्काल घर आया। परिवारजनों से बातचीत की, पूछा- 'भाई! यह डाका डालना बुरा है, आप सब जानते हैं?'
'हां, बड़ा पाप का बंध होता है । '
'इसे भुगतना भी पड़ेगा, तुम यह सचाई भी जानते हो।'
'हां, हम यह भी जानते हैं।'
'जब पाप भुगतना पड़ेगा तब तुम हिस्सा बंटाओगे या नहीं ?'
सब एक साथ बोले- 'नहीं, हम उसमें हिस्सेदार नहीं हैं। यह खोटा धंधा तुम करो' परिणाम भोगो । '
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तुम ही उसके
'अरे थोड़ा हिस्सा तो बंटाओगे ?' 'बिल्कुल नहीं।'
डाकू की आंखें खुल गईं। वह उन्हीं पैरों दौड़ता हुआ संत के पास आया, बोला- 'महाराज ! उनका स्पष्ट उत्तर है कि हम हिस्सेदार नहीं बनेंगे।'
संत ने कहा- 'भाई! मैंने यही तो कहा कि कर्म तो तुम अकेले करते हो, कर्म से प्राप्त दौलत का भोग सब करते हैं, किन्तु जब कर्म भुगतना पड़ेगा तब कोई आड़े नहीं आयेगा ।'
संत ने अच्छा जीवन जीने की प्रेरणा दी। डाकू को जीवन-सत्य का बोध हुआ। उसकी जीवन-धारा बदल गई।
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गाथा परम विजय की
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