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गाथा परम विजय की
जम्बूकुमार के प्रतिबोध को सुन कर चोरों के कान ही झंकृत नहीं हुए, दिमाग भी झंकृत हो गया, शरीर भी झंकृत हो गया। जैसे बांसुरी या वीणा की झंकार से पूरा शरीर झंकृत हो जाता है वैसे ही मन में उथल-पुथल मच गई।
इन क्षणों में प्रभव आगे आया, बोला-'साथियो! तुमने जम्बूकुमार का प्रवचन सुना। कैसा लगा?' सब एक स्वर में बोले-'अच्छा लगा।'
'साथियो! तुम ध्यान दो। आज तक हमारी आंखें बंद थीं। हम दूसरों को सताते रहे हैं, दुःख और पीड़ा देते रहे हैं। तुम यह जानते हो कि हमारा धंधा कितना खोटा है। दूसरों को सताना और स्वयं ऐशोआराम भोगना कितना बुरा काम है। हम चोरी कर धन लाते हैं और स्वयं मौज-मजा करते हैं। दूसरों के मन में दाह पैदा करते हैं। बिना अग्नि उनके चित्त को जला देते हैं। उनके प्राणों को लूटते हैं। हम इसमें सुख मानते हैं। यह कितना बड़ा अज्ञान है।'
'साथियो! मेरी आंख खुल गई है। मैंने तो यह देख लिया है कि हमारा यह कार्य अच्छा नहीं है।' एक स्वर आया'स्वामी! आपने क्या सोचा है? अब आप क्या करेंगे?' 'क्या तुम जानना चाहते हो?' 'हां।'
'साथियो! देखो, जम्बूकुमार सिंह की तरह आगे हो गए हैं। इनके आगे तो मैं नहीं हो सकता पर पीछे-पीछे जरूर चलूंगा। मेरे मन में पश्चात्ताप हो रहा है कि मैंने बहुत बुरा काम किया, अन्याय किया, अतिक्रमण किया, दूसरों को सताया, लूटा, सब कुछ किया पर अब....प्रभव कुछ भी नहीं करेगा।'
औ जिम सिंह आगल संचरै, हूं पिण इण री लार। काम भोग सर्व छांड नै, कर देवू खेवो पार।।
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