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गाथा परम विजय की
समय अपनी गति से चलता है। कभी लगता है कि बहुत जल्दी बीत गया और कभी लगता है कि बहुत लम्बा हो गया। कभी-कभी लोग कहते हैं-रात इतनी बड़ी हो गई कि कटनी मुश्किल हो गई। दिन इतना बड़ा हो गया कि कटना मुश्किल हो गया। दिन तो जितना होता है उतना ही होता है। रात जितनी होती है उतनी ही होती है पर कभी लम्बी लगती है और कभी छोटी। एक आदमी प्रतीक्षा में बैठा है। उसे समय बहुत लंबा लगता है। किसी ने कहा-तुम ठहरो दो मिनट। मैं अभी आ रहा हूं। यदि वह आता नहीं है तो काल बहुत लंबा लगता है।
प्रभव भीतर चला गया। जो साथी चोर थे, उनको लगा-कितना लंबा समय हो गया। उनके हाथ-पैर बंधे हुए थे पर मुंह खुला था। वे आपस में मद्धिम स्वर में वार्तालाप करने लगे-'देखो! अपना सरदार प्रभव तो भीतर महलों में बैठ गया। हम बाहर यहां खड़े हैं। न हाथ हिला सकते, न पैर हिला सकते। खंभे बने हुए खड़े हैं। उसको कोई चिन्ता नहीं है।' ___ उनके मन में थोड़ा आक्रोश भी आ गया-कैसा है सरदार? स्वयं तो भीतर प्रासाद के वैभव का आनंद ले रहा है और हम बाहर परेशान हो रहे हैं।
दूसरी ओर प्रभव प्रतिबुद्ध हो गया। जम्बूकुमार ने पूछा-'प्रभव! बोलो, तुम्हारी क्या इच्छा है?'
'कुमार! जो आपकी इच्छा है वह मेरी इच्छा है। आप मुनि बनेंगे तो मैं भी आपके साथ मुनि बनूंगा। पर कुछ समय आप ठहरें।'
'किसलिए प्रभव!' 'कुमार! मेरे जो साथी बाहर खड़े हैं उनसे एक बार बात तो कर लें कि वे क्या चाहते हैं।' 'प्रभव! तुम दरवाजा खोलो, आगे चलो।'
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