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गाथा परम विजय की
(४८)
चिन्तन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए । चिन्तन के द्वारा ही स्थिति का परिवर्तन होता है। पहले चिन्तन होता है, चिन्तन के बाद निर्णय होता है और फिर उसका व्यवहार होता है। कोई भी स्थिति बदलती है तो वह चिन्तन के द्वारा बदलती है। चिन्तन होता है तभी प्रश्न उठता है, जिज्ञासा होती है और समाधान भी मिलता है।
प्रभव ने कहा-'कुमार! मेरी एक जिज्ञासा प्रबल है। ये आठ बालाएं बैठी हैं। इनका क्या होगा
जम्बूकुमार ने कहा- 'जो मेरा होगा, वह इनका होगा और क्या होगा ?'
'क्या ये भी तुम्हारे साथ दीक्षित होंगी?'
'हां।'
'कुमार! तुमने अवश्य ही इन्हें विवश किया है।'
'प्रभव! मैंने कोई जबर्दस्ती नहीं की। अब भी कोई बाध्यता नहीं है। यदि ये दीक्षित न होना चाहें तो घर तैयार है। '
प्रभव ने आश्चर्य की दृष्टि से सबके सामने देखा, सबके मन एक नई उत्सुकता लिए प्रतीत हुए। प्रभव बोला- 'क्या आप दीक्षा लेना चाहती हैं?'
आठों नवयौवनाओं ने एक स्वर में कहा- 'हम भी साध्वी बनना चाहती हैं।'
'क्या जम्बूकुमार ने तुम्हें साध्वी बनने के लिए विवश किया है ? '
'नहीं महानुभाव! विवशता का कोई प्रश्न ही नहीं है। विवशता में कोई साधु-साध्वी बन नहीं सकता और बन जाए तो वह साधु कहलाता भी नहीं है।'
महावीर ने स्पष्ट कहा है—अच्छंदा जे न भुंजंति न से चाइ त्ति वुच्चई ।
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