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गाथा
परम विजय की
टूट
कभी भी कुछ कहा जाए तो वह सहन नहीं कर पाएगा। वह वैसे टूटेगा जैसे चोट लगते ही शीशा है। सहनशीलता के विकास के लिए जरूरी है कि उसे परिपक्व करो।
गुरु और शिष्य के संबंध में एक सुंदर उपमा दी जाती है
गुरुकुलाल सिख कुंभ सो घट काढे सब खोट । मांहै तो राखै जापतो, ऊपर स्यूं दै चोट ||
जाता
गुरु है कुम्भकार और शिष्य है घड़ा | घड़े को जब बनाते हैं तो कुम्हार भीतर में थापी रखता है और ऊपर से भी थाप देता है। भीतर में पूरा जापता रखता है। भीतर में सुरक्षा न हो और ऊपर से कोरी चोट मारे तो घड़ा फूट जाएगा। यदि बाहर से चोट न लगे तो घड़ा कच्चा रह जायेगा। क्या आजकल यही तो नहीं हो रहा है? पहले बच्चों पर ध्यान दिया नहीं जाता, कुछ कहा नहीं जाता, खुला छोड़ दिया जाता है और जब वे बड़े हो जाते हैं तब कहा जाता है - वे हमारे वश में नहीं हैं, हमारी बात नहीं मानते, हमें दुःख देते हैं। वस्तुतः यह दुःख तो तुमने जान-बूझ कर पैदा किया है। इसकी तैयारी तुमने ही तो की है। पहले ध्यान दिया नहीं, अब बड़ा हो गया, पक गया। जो पकी हुई हांडी होती है उस पर कारी नहीं लगती।
यह एक अनुभव की बात कही गई -पांच वर्ष का बच्चा है, तब तक उसको प्यार दो, प्रियता दो । दस वर्ष तक उसको खूब कसो। पांच से लेकर पन्द्रह वर्ष तक पूरा अंकुश रखो। जब पुत्र सोलह वर्ष का हो जाए तब पुत्रं मित्रवदाचरेत्-पुत्र को अपना मित्र बना लो। फिर वह मित्र का काम देगा। कौन-सा पुत्र मित्र का काम देगा? जिस घड़े को पकाया है जिस पुत्र को अंकुश में रखा है, वह मित्रवत् काम देगा। जिसको नहीं पकाया, उसमें पानी डालो तो पानी भी खराब होगा और घड़ा भी फूट जाएगा। पकाना बहुत जरूरी है। जिनमें परिपक्वता नहीं आती और जो सोचते हैं कि हम तो बस आराम में रहें। वे स्वयं के लिए भी खतरा बनते हैं और परिवार के लिए भी।
'प्रिये! उस प्रधान सुबुद्धि ने अपनी पत्नी को मित्र माना। रोज उसका पालन-पोषण करता है, अच्छी वस्तुएं लाकर देता है। उससे बहुत निकट संबंध स्थापित कर लिया। वह नित्यमित्र हो गई।'
‘दूसरा मित्र बनाया अपने ज्ञाति वर्ग को । कभी-कभी मौका आता, उस दिन उन मित्रों को बुला लेता, भोजन करवाता और बड़ा स्वागत करता। वे हो गए पर्व मित्र । दूसरी श्रेणी के मित्र थे ज्ञातिजन । जब कोई विशेष अवसर आता, विशेष समारोह होता तब ज्ञातिजनों को बुलाता और उनका स्वागत करता, सत्कारसम्मान करता।'
‘तीसरी कोटि का मित्र बनाया एक सेठ को। वह सेठ बहुत प्रसिद्ध था, शक्तिशाली था। उससे इतना ही संपर्क था कि जब कभी मिले तो जय जिनेन्द्र कह दो, हाथ जोड़ कर अभिवादन कर लो, मुस्करा कर दो शब्द बोल दो। कभी आत्महित और समाजहित की चर्चा कर लो। बस इतनी मित्रता, और कोई गहरा संबंध नहीं।'
ये तीन मित्र हो गये - नित्य मित्र, पर्व मित्र और हितैषी मित्र ।
एक बार ऐसा प्रसंग बना कि राजा कुपित हो गया। पुराने जमाने में अनेक राजा भी बहुत निरंकुश होते थे। थोड़ा-सा मन के प्रतिकूल काम होता तो कुपित हो जाते, आदेश दे देते कि फांसी लगा दो, शूली
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