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कान, नाक, आंख, मुंह–ये सब बंद, इसका अर्थ है - बाह्य जगत् से संबंध विच्छिन्न । बाह्य जगत् से संबंध को तोड़ो, भीतर जाओ तो दिखाई देगा कि सचाई क्या है, चेतना क्या है, आत्मा क्या है, सुख क्या है ? भीतर झांकते ही यह सब समझ में आयेगा ।
'जयंतश्री! मैं इसीलिए तुम्हें कहना चाहता हूं कि जरा आंख मूंदकर देखो, केवल आंख को खोलकर मत देखो।'
'प्रिये! दूसरी बात यह है अभी तुझमें चपलता दिखाई दे रही है।'
चपलता को जोड़ देखो, सत्य अस्थिर सा लगेगा।
चपलता को छोड़ देखो, सत्य सुस्थिर सा लगेगा ।।
'जितनी चपलता है उतना ही सत्य तुम्हें अस्थिर लगेगा। मन की चपलता ही तो सारा काम कर रही । तुम मन की चपलता को छोड़कर देखो, ऐसा लगेगा, जैसे सत्य एकदम मेरु पर्वत की तरह स्थिर बना
है।
हुआ है।'
'प्रिये ! तुम मेरी बात मानो। एक बार आंख मूंद कर अपने भीतर देखो और मन की चपलता को छोड़ो। मन को एकाग्र बनाओ, एक विषय पर तुम मन को टिका दो। जैसे-जैसे तुम्हारी एकाग्रता बढ़ेगी, वैसे-वैसे सत्य का अनुभव होता जाएगा।'
"प्रिये! तुम कोरा वाद कर रही हो। कभी कहानी सुनाती हो, कभी वाद-विवाद करती हो। क्या तुम इस बात को नहीं जानती कि वाद से कभी सचाई मिलती नहीं है।'
वाद लेकर तुम चलो, वह डगमगाता सा लगेगा। हार्द लेकर तुम चलो, वह जगमगाता सा लगेगा ।।
प्रिये! वाद लेकर चलो तो सत्य एकदम डगमगाता-सा लगेगा, हिलता सा लगेगा। उसका हार्द क्या है? हृदय क्या है, यह समझो तो सत्य जगमगाता - सा लगेगा।'
रूढ़ होकर तुम चलो, संहार जैसा वह लगेगा।
गूढ़ होकर तुम चलो, आधार जैसा वह लगेगा ।।
“प्रिये! यदि तुम रूढ़ बन कर चलोगी तो वह संहारक प्रतीत होगा । यदि तुम गहराई में जाओगी तो तुम्हें पता चलेगा कि सत्य क्या है और वह कितना बड़ा आधार है। '
'प्रिये! तुम सत्य को यदि समझना चाहती हो, सत्य की बात करती हो तो फिर ऐसी बात मत करो कि किसकी कहानी सच्ची और किसकी कहानी झूठी ? तुम यह समझो कि किसका हार्द सही है? कहानी का हार्द क्या है? तुम हार्द को समझने का प्रयत्न करो।'
जम्बूकुमार ने सच और की पूरी कलई खोल दी। जयंतश्री ने जो तर्क प्रस्तुत किया, उस तर्क की व्यर्थता सिद्ध कर दी, सत्य का स्वरूप सामने रख दिया।
झूठ क्या है, माया क्या है, प्रपंच क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए जम्बूकुमार ने मृग मरीचिका में मत जाओ। यह इंद्रिय विषयों की एक मृग मरीचिका है जिसका कभी
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-'प्रिये ! तुम इस अंत नहीं होता । '
कहा-"
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गाथा
परम विजय की
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