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गाथा परम विजय की
तो सहज ही ध्यान ऊपर चला गया। मैंने देखा-पंखे के दो ताड़ियां हैं। मैंने सोचा आज तक तो पंखे के तीन ताड़ियां होती थीं, क्या कोई नया आविष्कार हुआ है? बाद में कुछ लोग आये, मैंने पूछा-'भाई! क्या यहां दो ताड़ी के पंखे हैं?'
भाई बोले-'नहीं महाराज! ताड़ियां तो तीन ही हैं।' 'फिर दो कैसे?' 'महाराज! एक ताड़ी नाम लगाने के लिए गई हुई है। उस पर दाता का नाम लिखा जा रहा है।' एक दिन एक भाई ने सुझाव दिया-'आप जिस पट्ट पर बैठते हैं, उसको ऐसे नहीं, उलटा कर दें।' मैंने कहा-क्यों?' भाई बोला-'महाराज! इधर नाम है, अच्छा नहीं लगता।' यह एक स्वाभाविक आकांक्षा रहती है कि मेरा नाम चलता रहे।
वस्तुतः नाम किसी का चलता नहीं है। कुरेदा गया नाम भी मिट जाता है। लिखे हुए नाम को कोई पढ़ता भी नहीं है। उस पर धूल जम जाती है फिर भी मन में एक आकांक्षा रहती है।
हम प्राचीन ग्रंथों को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि कितने बड़े-बड़े व्यक्ति हुए हैं। अनेक बहुत समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति हुए हैं पर आज उन्हें कोई जानता ही नहीं है। इतिहास में कोई दो सौ-चार सौ नाम आते होंगे पर उनको भी लोग नहीं जानते फिर भी एक आकांक्षा रहती है। उसी आकांक्षा के आधार पर प्रभव ने जम्बूकुमार से कहा-'कुमार! बताओ पुत्र के बिना तुम्हारा नाम कैसे चलेगा? पुत्र के बिना परिवार
और संपदा का क्या होगा? ये इतने बड़े प्रासाद हैं, इतनी सम्पदा है, इन्हें कौन भोगेगा? किसके काम आयेगी यह संपदा? क्या किसी को गोद लोगे?'
जिनके पुत्र नहीं होता, वे किसी संबंधी अथवा प्रिय जन को गोद लेते हैं। यह दत्तक पुत्र भी नाम चलाने के लिए लिया जाता है।
'कुमार! बिना पुत्र के यह सारी संपदा निकम्मी है। तुम सोचते क्यों नहीं हो?' _'कुमार! इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब तुम मरोगे तो पिण्ड-दान कौन करेगा? अंजलि कौन देगा? चिता पर मुखाग्नि कौन लगायेगा? तुम अभी साधु बनने की बात कर रहे हो। पुत्र के बिना होगा क्या?'
'कुमार! पुत्र के बिना घर सूना होता है। जैसे भाई नहीं होता तो दिशाएं सूनी होती हैं, वैसे ही पुत्र के बिना घर सूना होता है। ज्ञान के बिना मस्तिष्क सूना होता है। दरिद्र के लिए पूरा संसार सूना होता है। उसे रहने को मकान नहीं मिलता। बीमार हो जाए तो दवा नहीं मिलती।'
आज तो दवा भी कितनी महंगी है। पूज्य गुरुदेव दिल्ली में विराज रहे थे। एक सेवानिवृत्त अधिकारी आया, बोला-'महाराज! मेरी कथा सुनिए। वस्तुतः वह कथा नहीं, मेरी व्यथा है।'
गुरुदेव ने पूछा-'बोलो, क्या हुआ?'
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