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१००००.०७.७०
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गाथा परम विजय की
हर व्यक्ति अनेक आयामों में जीता है। पहले वह व्यक्ति है, फिर परिवार, समाज, प्रान्त और राष्ट्र। पहले व्यक्तिगत अवधारणा, फिर सामाजिक अवधारणा अथवा मान्यताएं होती हैं। फिर उसके सामने होती है धर्म की धारणा। सबसे पहले व्यक्ति के सामने समाज की धारणा आती है इसीलिए आर्यरक्षित ने आगम के भी दो विभाग कर दिये-लौकिक और लोकोत्तर। एक लौकिक मान्यता और एक लोकोत्तर सिद्धान्त। वैदिक साहित्य में स्मृतियां लिखी गईं, धर्मसूत्र लिखे गये, कल्पसूत्र लिखे गये। उनमें तात्कालिक समाज की मान्यताओं का चित्रण है। षोडश संस्कार माने गये। जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यंत होने वाले सोलह संस्कारों का निरूपण है। उन सामाजिक धारणाओं में एक धारणा है-अपुत्रस्य गति स्ति। प्रभव के मन में वही धारणा काम कर रही है और वही प्रश्न उठ रहा है। ____ प्रभव बोला-'कुमार! और सब बातें ठीक हैं पर एक प्रश्न अभी भी मन को कचोट रहा है। मैंने पढ़ा है, जाना है-अपुत्रस्य गति स्ति-जिसके पुत्र नहीं होता उसकी गति नहीं होती इसलिए गृहस्थ का सबसे पहला काम है कि वह संतान पैदा करे, फिर संन्यासी बनने की बात सोचे। तुम तो अभी नवविवाहित हो, तुमने संतान पैदा नहीं की है और पहले ही साधु बनने की बात कर रहे हो यह कैसी बात है?' ___उस युग में यह लौकिक या समाजशास्त्रीय मान्यता थी कि संतान पैदा करना जरूरी है। ये लौकिक मान्यताएं परिस्थिति के साथ बनती बिगड़ती हैं। जैसी परिस्थिति होती है समाज का वैसा सूत्र सामने आ जाता है। एक समय था महावीर का, बुद्ध का। जब श्रमण परंपरा का उत्कर्ष था तब साधु बनने की बात बहुत मान्य हो गई। साधुओं की संख्या भी बहुत बढ़ी। केवल भगवान महावीर के शिष्यों को देखें-१४००० साधु और ३६००० साध्वियां। कितनी बड़ी संख्या! एक फौज बन जाए छोटे राष्ट्र की। ____ बुद्ध के हजारों शिष्य, आजीवक के हजारों भिक्ष। श्रमण परम्परा में भी अनेक संप्रदाय थे। जैन, बौद्ध, आजीवक, सांख्य, परिव्राजक-सबके हजारों-हजारों की संख्या में संन्यासी। वैदिक संन्यासी भी काफी
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