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गाथा
परम विजय की
दोनों शिष्य रात को गुरु की पगचंपी करते। दोनों का प्रेम बहुत था गुरु के प्रति। एक सोचता-दोनों पैरों की पगचंपी मैं कर लूं। दूसरा सोचता-मैं कर लूं। पगचंपी के लिए भी आपस में झगड़ पड़ते। गुरु ने कहा-ऐसे लड़ना-झगड़ना ठीक नहीं है। तुम विभाग कर लो-बाएं पैर का तुम करो, दाएं पैर का वह करे। दोनों की पांती कर दी। पांती से करने लगे तो पांती का संस्कार बन गया, चेतना वैसी बन गई। एक दिन रात को पगचंपी कर रहे थे। गुरु को नींद आ गई। नींद में बायां पैर दाएं पर आकर गिरा। बाएं पैर की पगचंपी करने वाले शिष्य ने एक चांटा जड़ा-मूर्ख कहीं का। मेरी ओर क्यों आया?
प्रेय में कितना अविवेक और कितना अज्ञान होता है। वह यह नहीं सोचता कि पैर है किसका? शायद बहुत सारे अनर्थ प्रीति के कारण होते हैं। प्रीति के साथ विवेक होना चाहिए, श्रेय का ज्ञान होना चाहिए।
प्रसिद्ध कथा है। बंदर को राजा से अनुराग हो गया। राजा ने उसे सुरक्षा में रख लिया। हाथ में तलवार दे दी। बंदर खड़ा रहता तलवार लिए। किसी को नहीं आने देता। एक दिन राजा के गले पर मक्खी बैठी। बंदर ने सोचा-राजा के गले पर मक्खी बैठ गई, यह ठीक नहीं है। तलवार का ऐसा झटका दिया कि मक्खी के साथ-साथ राजा की गर्दन भी चली गई।
कोरा प्रेय काम नहीं देता। जब तक श्रेय का दर्शन पुष्ट नहीं होता तब तक प्रेय हितकर नहीं होता।
जम्बूकुमार ने कहा-'जहां श्रेय का ज्ञान नहीं होता, कोरी प्रीति होती है वहां अनर्थ भी घटित होता है। प्रभव! तुमने देखा होगा-प्रीति के कारण पतंगा जलते हुए दीये के पास जाता है और आग में, दीये में झंपापात ले लेता है।'
'हां, जम्बूकुमार!'
'प्रभव! मछली को पकड़ने वाले जाल बिछाते हैं। कील के एक छोर पर मांस लगा देते हैं। मछली उस मांस के लोभ में आती है, मुंह लगाती है और वहीं फंस जाती है। कील उसके मुंह में चली जाती है, वह बंदी बन जाती है।'
अजानन् दाहार्ति पतति शलभस्तीव्रदहने, नमी नोऽपि ज्ञात्वा बडिशयुतमश्नाति पिशितं। विजानंतोप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्,
न मुंचामः कामान् अहह गहनो मोहमहिमा।। 'प्रभव! तुम जरा ध्यान दो। कोरा प्रेय कैसे अच्छा होगा? पतंगे में प्रेय की चेतना प्रबल है। वह प्रियतावश अग्नि में झंपापात ले लेता है और भस्म हो जाता है। मछली मांसयुक्त कांटे पर अपनी जीभ लगाती है, फंस जाती है, कील चुभ जाती है और वह बंदी बन जाती है। इसलिए कोरा प्रेय आदेय नहीं है।' ___ 'प्रभव! हम मनुष्य हैं। हमारे भीतर सोचने की शक्ति है। हम प्रेय को भी जानते हैं और श्रेय को भी। हम दोनों को जानते हुए भी केवल प्रेय में फंस जाते हैं, श्रेय पर ध्यान नहीं देते। 'अहह गहनो मोहमहिमा'यह मोह की गहन महिमा है।' 'प्रभव! मैं इतनी बात कहकर अपने वक्तव्य को विराम देना चाहता हूं कि हम मोह में फंसे हुए न
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