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गाथा परम विजय की
आनंदघनजी ने मन ही मन सोचा - क्या मेरी साधना का इतना ही उपयोग रहा है कि कोई सोना मांगे, कोई बेटा मांगे। आनंदघनजी बोले- 'राजन् ! यह मेरा काम नहीं है । '
राजा ने अनुनय की भाषा में कहा-'नहीं महाराज! आपको कृपा करनी होगी। आप राज्य को देखें, राज्य का क्या होगा।'
राजा का बहुत आग्रह रहा। आनंदघनजी ने सोचा- राजा को रुष्ट करना भी ठीक नहीं है। उन्होंने उपाय खोज लिया, कहा-राजन् ! ठीक है, लाओ एक कागज लाओ। राजा ने कागज प्रस्तुत कर दिया । आनंदघनजी ने कागज की चिट पर कुछ लिखा और कहा - 'महारानी के हाथ पर बांध दो।' उसी समय महारानी के हाथ पर बांध दिया। राजा चला गया। कोई योग था, पुत्र हो गया । पुत्र कुछ बड़ा हुआ। राजा महारानी और के साथ आनंदघनजी के पास पहुंचे। राजा बड़ा प्रसन्न था, उसने कृतज्ञता भरे स्वर में कहा—महाराज! आपकी बड़ी कृपा हो गई। आपने मुझे पुत्ररत्न दे दिया।' यह कहते हुए राजा ने पुत्र को आनंदघनजी के चरणों में लुटाया।
आनंदघनजी बोले-'राजन्! किसने दिया ?'
'आपने दिया है महाराज!'
'मैंने नहीं दिया। '
'महाराज! आप भूल गये। आपने ही तो वह मंत्र ताबीज बना कर दिया था। अब भी वह महारानी के हाथ पर बंधा हुआ है।'
'लाओ, उसे खोलो।'
राजा ने ताबीज खोला। आनंदघनजी ने कहा- 'अब इसे पढ़ो। '
उस समय सैकड़ों लोग बैठे थे। मंत्री कागज की चिट को पढ़ने लगा, उसमें लिखा था- 'महारानी के पुत्र हो तो आनंदघन को क्या और महारानी के पुत्र न हो तो आनंदघन को क्या ?”
सब एकदम अवाक् रह गये। आनंदघनजी बोले - राजन् ! तुम समझे नहीं। मैंने पत्र में कुछ नहीं लिखा। मैंने कहा था- अगर तुम पुत्र चाहते हो तो इन पांच व्रतों को स्वीकार करो
१. झूठ नहीं बोलूंगा।
२. जनता का शोषण नहीं करूंगा।
३. ज्यादा कर नहीं लूंगा।
४. शिकार नहीं करूंगा।
५. किसी के साथ असद्व्यवहार नहीं करूंगा।
मैंने कहा था—इन व्रतों का पालन करोगे तो हो सकता है कि तुम्हारी कामना सिद्ध हो जाए। तुमने पालन किया या नहीं ?'
'हां, महाराज! मैंने अक्षरशः पालन किया ।'
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