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'गुरुदेव! मैं चालीस हजार रुपये चिकित्सा कराने के लिए लाया था। डॉक्टरों के चक्कर में फंस गया। डॉक्टर ने कहा-चेकअप कराओ, यह टैस्ट कराना है, यह टैस्ट कराना है। लंबी तालिका दे दी। सारे टैस्ट कराए। टैस्ट करवाने में ही मेरे चालीस हजार रुपए लग गये। अब मैं इलाज कैसे कराऊं ?'
दरिद्री के लिए बड़ी समस्या होती है कि वह कैसे जीये और कैसे सुख शांति से रह सके ? ठीक लेखा-दालिद्री सर्व सूनो संसार - उसके लिए सारा संसार सूना है, कहीं भी भरा हुआ नहीं है।
'कुमार! तुम सोचो, पुत्र के बिना क्या गति होगी ? घर का आंगन सूना रहेगा। घर में बच्चा होता है, किलकारियां लगाता है तो घर भरा-भरा लगता है। उसके बिना तो सारा सूना-सूना लगेगा।'
मौलिक मनोवृत्तियों के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। मनोविज्ञान में जैसे १४ मौलिक मनोवृत्तियां मानी जाती हैं वैसे ही प्राचीन विद्वानों ने, भारत के समाजशास्त्रियों ने तीन एषणाएं मानीं - १. वित्तैषणा- धन की एषणा, २. सुतैषणा-पुत्र की एषणा, ३. लोकैषणा - यश की एषणा ।
व्यक्ति संतान चाहता है। यह स्वाभाविक मौलिक मनोवृत्ति है । यह कोई कृत्रिम नहीं, कृत नहीं है। यह संस्कारगत धारणा है। आंतरिक आकांक्षा है कि वह संतान चाहता है और जब तक संतान नहीं होती तब तक बड़ी छटपटाहट होती है।
योगी आनंदघनजी की प्रसिद्ध घटना है। आनंदघनजी जैन परम्परा में प्रसिद्ध योगी संत हुए हैं। वे पहुंचे हुए साधक थे। एक बार आनंदघनजी मेड़ता में आये | मेड़ता बहुत प्रतिष्ठित नगर था। लोगों को पता चला-आनंदघनजी आए हैं। भीड़ इकट्ठी हो गई । अध्यात्म का ज्ञान पाने के लिए, बंधन मुक्ति के लिए भीड़ इकट्ठी नहीं हुई। लोगों को यह पता था कि आनंदघनजी स्वर्ण सिद्धि की विद्या को जानते हैं, उनके पास सोना बनाने की विद्या है। यह पता चल जाए तो कौन व्यक्ति वंचित रहेगा ? हजारों-हजारों लोगों की भीड़ हो गई। व्यक्ति आते हैं, नमस्कार करते हैं और बोलते हैं- 'महाराज ! कृपा करो, आशीर्वाद दो । '
आनंदघनजी पूछते हैं—'क्या बात है ?'
'महाराज! और कुछ नहीं, यह स्वर्ण सिद्धि की विद्या मुझे सिखा दो । '
अनेक व्यक्ति एकान्त में आते हैं और भावपूर्ण स्वर में प्रार्थना करते हैं- मुझे यह विद्या सिखा दो कि सोना कैसे बनता है? आनंदघनजी को परेशान कर दिया। दिन-रात केवल यही चर्चा । न आत्मज्ञान की चर्चा, न तत्त्वज्ञान की चर्चा, न आत्मा-परमात्मा की चर्चा । केवल एक ही चर्चा - महाराज ! सोना बनाने की विद्या सिखा दें।
आनंदघनजी ने सोचा-क्या यह मेरा कोई धंधा है? वे फक्कड़ थे। वहां से चल पड़े। जंगल में चले गये। राजा को पता चला - आनंदघनजी आये थे और चले गये। राजा ने सोचा कि मैं भी वंचित रह गया। राजा जंगल में रानी को लेकर आया, नमस्कार किया। आनंदघनजी अपनी योगमुद्रा में बैठे थे। समय देखकर राजा बोला-'महाराज ! कृपा करें।'
'भाई ! क्या चाहिए ?'
'महाराज ! पुत्र नहीं है, उत्तराधिकारी नहीं है। यह राज्य कैसे चलेगा? कृपा करें।'
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गाथा
परम विजय की
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