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गाथा
परम विजय की
- लक्ष्य की सिद्धि सामने होती है तो व्यक्ति को बहुत आनंद होता है। जो भी लक्ष्य बनाया, उसके लिए प्रयत्न किया, साधन जुटाए, सब बाधाओं को दूर हटाया। व्यक्ति लक्ष्य के परिपार्श्व में पहुंचने वाला होता है उस समय जिस आनंद का अनुभव होता है, उस आनंद का अनुभव अन्यत्र कहीं नहीं होता।
एक लक्ष्य था जम्बूकुमार का कि मुनि बनना है। बाधाएं भी कम नहीं आईं। सबसे पहली बाधा माता-पिता की आई। माता-पिता का विवाह के लिए इतना आग्रह रहा कि जम्बूकुमार उसे टाल नहीं सका। आखिर उसने स्वीकार कर लिया कि मैं विवाह कर लूंगा। विवाह करने के बाद नव-परिणीता पत्नियों की प्रबल बाधा आई। उस बाधा को भी वह पार कर गया। उसने सोचा-अब पथ निर्बाध है, कोई बाधा नहीं है, कोई विघ्न नहीं है पर इस संक्रमणशील दुनिया में जहां अनेक प्रकार के पदार्थ हैं, चैतसिक, मानसिक, भौतिक अनेक परिस्थितियां हैं वहां बाधा सर्वथा टल जाए यह बहुत कठिन बात है।
जम्बूकुमार और कन्याओं के मध्य प्रसन्नता से वार्तालाप हो रहा है। कन्याएं जम्बूकुमार के धृति बल, मनोबल और वैराग्य का वर्धापन कर रही हैं। उसी समय किसी ने दरवाजा खटखटाया तो सबने सोचा-रात को कौन आया है? किसने दरवाजा खटखटाया है? इस दस्तक को सुना मगर सब मौन रहे। दो-तीन बार दरवाजा खटखटाया फिर भी दरवाजा नहीं खुला तब पुनः आवाज आई-'कुमार! कृपा करो, कृपा करो, अनुग्रह करो।'
जम्बूकुमार ने सोचा-कौन है अनुग्रह की मांग करने वाला? असमय में कौन व्यक्ति आया है, जो कृपा की मांग कर रहा है? लगता है कोई दुखियारा है। जम्बूकुमार द्वार खोलने के लिए खड़ा होता उससे पूर्व उसके कानों से फिर ये शब्द टकराए-कृपा करो और एक बार दरवाजा खोलो।'
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