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की प्रकृति के
'प्रभव! क्या काम भोगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी तृप्त हुआ है? तुम यह प्रमाणित कर दो कि काम से कभी कोई तृप्त हुआ है तो मैं तुम्हारी बात मान लूंगा।'
'प्रभव! मैंने अपनी नवोढ़ा पत्नियों को काम की प्रकृति के बारे में बताया। इन्होंने काम की प्रकृति को जाना। तुम्हें भी मैं काम की प्रकृति का बोध कराना चाहता हूं। काम की प्रकृति क्या है?
आरम्भे तापकान्–जब तक वांछित चीज नहीं मिलती तब तक तनाव रहता है। जिसकी मन में चाह पैदा हो गई और वह मिलता नहीं है तब तक तनाव बराबर बना रहता है।
प्राप्ते अतृप्तिप्रतिपादकान्–जो चाहा, मिल गया तो अतृप्ति उत्पन्न हो जाती है। जैसे-जैसे सेवन करेगा वैसे-वैसे अतृप्ति और बढ़ती चली जायेगी।
अंते सुदश्त्यजान्-अंत में छोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है। एक ऐसा बंधन हो जाता है कि आदमी उसे छोड़ नहीं पाता।
किसी व्यक्ति ने एक बार नशा करना शुरू कर दिया, वह जानता है कि इससे नुकसान होता है, यह हानिकर है। कैंसर, अल्सर, हार्ट अटैक होता है, लिवर, फेफड़ा आदि खराब होते हैं वह यह सब कुछ जानता है पर उसे छोड़ नहीं पाता। वह सुदुस्त्यज हो जाता है। प्रभव! काम की इस प्रकृति को तुम भी समझो।'
'कुमार! आप ठीक कह रहे हैं पर यह तो बताएं कि क्या इस कामना पर कोई नियंत्रण कर सकता है?' 'हां, प्रभव! यही मार्ग तो मुझे सुधर्मा स्वामी ने बताया है।' 'कुमार! काम पर नियंत्रण का कोई उपाय हो सकता है, यह मैं अभी भी नहीं समझ पा रहा हूं।
यह शरीर की प्रकृति और यह सोचने का तरीका-कैसे नियंत्रण हो सकता है? सामाजिक जीवन में स्पर्धा, होड़ और ईर्ष्या इतनी प्रबल है कि काम पर नियंत्रण कैसे संभव है?'
_ 'प्रभव! नियंत्रण करना सरल नहीं है। कोई आदमी यह चाहे कि मैं बैठा-बैठा उस पर नियंत्रण कर लूं तो यह कभी संभव भी नहीं है। किन्तु प्रभव! इस दुनिया में अपाय है तो उपाय भी है। निरुपाय कुछ भी नहीं है।'
'प्रभव! तुम जानते हो कि अरणि में से आग निकलती है?'
'हां, मैंने यह सुना है।'
'क्या तुमने उस मूर्ख लकड़हारे की कथा सुनी है जिसने अरणि की लकड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर दिए पर वह आग उत्पन्न नहीं कर सका।'
'हां कुमार! मैंने वह कथा सुनी है।'
गाथा परम विजय की