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नरक गति में जाने के चार कारण हैं- महारंभेणं महापरिग्गहेणं पंचेन्द्रियवहेणं कुणिमाहारेणं - महा आरंभ, महा परिग्रह, मांसाहार और पंचेन्द्रिय वध ।
महा आरंभ-जहां आरंभ की कोई सीमा ही नहीं है। महा परिग्रह - जहां परिग्रह की कोई सीमा नहीं है। मांसाहार और पंचेन्द्रिय जीवों का वध - इनसे व्यक्ति नरक गति में जाता है। जो पचीस बोल का यह पहला बोल जानता है वह सोचता है कि मुझे नरक में नहीं जाना है। हमने उस युग को देखा है जिसमें छोटे बच्चे आते और कहते-‘महाराज! नारकी का चित्र दिखाओ।' नारकी का चित्र देखते तो नरक के प्रति मन में एक भय पैदा हो जाता। उनके मन में यह संकल्प पैदा होता- मुझे नरक में नहीं जाना है, दुर्गति में नहीं जाना है। मैं ऐसा काम नहीं करूंगा जिससे नरक में चला जाऊं। मन पर एक अंकुश लग जाता । व्यक्ति कोई भी काम करता तो सोचता-यह ऐसा आचरण तो नहीं है जिससे नरक में चला जाऊं। आज चिन्तन का यह कोण बन गया है- नरक में, स्वर्ग में कहीं चले जाओ, क्या फर्क पड़ेगा?
तत्त्वज्ञान बहुत आवश्यक होता है। दूसरा बोल है जाति पांच- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय। सबसे पहले आता है एकेन्द्रिय । व्यक्ति सोचता है मुझे ऐसा काम नहीं करना है, जिससे एकेन्द्रिय बन जाऊं, पत्थर बन जाऊं, पानी बन जाऊं, आग बन जाऊं। मुझे उस जाति में नहीं जाना है। तीसरा बोल है काया छह–पृथ्वीकाय, अप्काय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय । मुझे पृथ्वीका आदि नहीं जाना है।
यह तत्त्वज्ञान एक प्रकार का अंकुश लगाता है। धर्म के क्षेत्र में यह एक अंकुश रहा है। इस अंकुश की आज भी जरूरत है। प्रश्न हो सकता है- आज पचीस बोल कितने लोगों को याद हैं? आज तत्त्वज्ञान छूट गया, सारी धारणा बदल गई इसलिए पाप करने में आदमी सकुचाता नहीं है। उस युग में प्रायः बहिनें पचीस बोल सीखती थीं। आज शायद उसमें भी अंतर आया है। आज की पढ़ी-लिखी लड़कियों और पढ़े-लिखे लड़कों में ज्यादा अंतर नहीं रहा। बहिनों और भाइयों में भी कोई बहुत अंतर नहीं रहा है। कभी-कभी यह भी पता नहीं लगता कि जो सामने व्यक्ति है वह बहन है या भाई ?
एक बार नाटक हो रहा था। नाटक का एक पात्र आया। एक व्यक्ति अपने पास बैठे भाई से बोलायह लड़का तो बहुत अच्छा अभिनय कर रहा है। उस व्यक्ति ने कहा- यह लड़का नहीं है, मेरी लड़की है। उसने आश्चर्य के साथ कहा- 'अच्छा! क्या आप उसके पिता हैं ?'
'नहीं, मैं उसका पिता नहीं हूं। मैं उसकी मां हूं।'
आज वेशभूषा में इतना बदलाव आ गया है कि पहचान करना कठिन हो जाता है। वेशभूषा में अंतर रहे या न रहे किन्तु तत्त्वज्ञान में अंतर रहे। यदि बहनों में माला गिनना, सामायिक करना, तत्त्वज्ञान सीखनायह क्रम पुष्ट रहता है तो बच्चों में अच्छे संस्कार आ जाएंगे। बहिनों में यह नहीं होता है, तो फिर बच्चों का भविष्य कैसे अच्छा हो सकता है? आज की जो नवयुवतियां हैं, उन्हें तत्त्वज्ञान अवश्य करना चाहिए। उनके लिए तत्त्वज्ञान बहुत आवश्यक है और वह नहीं होता है तो सचमुच एक अंकुश नहीं रहता । तत्त्वज्ञान का अंकुश न रहे और धन बढ़ जाए तो फिर बुराई का रास्ता खुलता है प्रतिक्रिया का जन्म हो जाता है।
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गाथा
परम विजय की
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