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गाथा परम विजय की
दूसरों को रंगीन नहीं बना सकता। ऐसा लगता है कि आपका अणु-अणु वैराग्य के रंग से रंगा हुआ है। इस अवस्था में इतना प्रगाढ़ वैराग्य है आपका। क्या यह कोई सोलह वर्ष की अवस्था वैराग्य का समय है?' ____ जम्बूकुमार ने १६ वर्ष की अवस्था में शादी की। आजकल तो प्रायः १६ वर्ष में शादियां होती नहीं हैं। गांवों में तो अभी भी कहीं-कहीं छोटी अवस्था में विवाह हो जाता है पर अब बहुत कम प्रचलन हो गया है। प्राचीनकाल में १६ वर्ष की अवस्था में प्रायः विवाह हो जाता था।
'स्वामी! इस अवस्था में इतना वैराग्य, इतनी समझ और इतना उपशम। हम कल्पना भी नहीं कर सकती।'
कनकसेना ने कहा-'स्वामी! एक बहुत आश्चर्य की बात हुई है और उससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा?' आचार्य भिक्षु ने इस आश्चर्य को मर्मस्पर्शी शब्दावली में प्रस्तुत किया है
केई कांता कुंआरी थका त्यागी, केई परण भोगवने त्यागी।
थे परणीजी ने भोगव्या बिन त्यागी, आ कीधी घणी अथाघी रा कुमरजी! 'स्वामी! कुछ लोगों ने तो कौमार्य अवस्था में दीक्षा ले ली, विवाह किया ही नहीं। कुछ लोगों ने विवाह किया, गृहस्थवास में रहे, सहवास किया। दस-बीस, पचास वर्ष तक भोगों का आसेवन किया। उसके पश्चात् दीक्षा ली। ये दो बातें हमने देखी हैं-कुमार दीक्षा भी देखी है और विवाह के पश्चात् दीक्षा लेते भी देखा है किन्तु यह एक अपूर्व घटना है कि विवाह भी कर लिया और गृहस्थवास भी नहीं भोगा। पहले दिन तो विवाह और दूसरे दिन दीक्षा-यह इतिहास की दुर्लभ घटना है।' ___ 'स्वामी! आपका मनोबल, आपकी धृति, आपका दृढ़ संकल्प, आश्चर्यकारी है। कहा जाता है कि एक स्त्री के मोहपाश में फंस जाएं तो भी बड़ा मुश्किल है। आठ-आठ नवयौवना कन्याओं ने यहां घेरा डाल दिया, आपको मोहपाश में बांधने का बहुत प्रयत्न किया, वैराग्य के संकल्प से डिगाने का प्रयत्न किया। जो कुछ कर सकती थी, वह सब किया पर आपका एक अणु भी प्रकंपित नहीं हुआ, कहीं भी रंग उतरा नहीं। ऐसा मजीठा रंग हो गया कि हमारे सारे प्रयत्न विफल हो गये।'
स्वामी! हमने ऐसा वैराग्य कहीं नहीं देखा। सचमुच वैराग्य हो तो ऐसा हो। यदि पूछा जाए-कैसा होना चाहिए वैराग्य? तो उत्तर होगा-जम्बूकुमार जैसा।' ___ एक साधु के लिए यह मर्यादा है कि वह रात में स्त्रियों के साथ एक कमरे में न रहे। जम्बूकुमार भावी मुनि है, साधु होने वाला है, एक कमरे में रातभर एक साथ आठ-आठ अप्सरातुल्य नवयौवनाओं के बीच रहा, पर कहीं भी विचलन नहीं। किसी रुआंली में भी रागात्मक प्रकंपन नहीं। क्या इसकी कल्पना की जा सकती है?
आचार्य मानतुंग ने भगवान ऋषभ की स्तुति में भक्तामर स्तोत्र की रचना की। उनकी स्तुति में मानतुंग ने इस आश्चर्य को प्रकट किया
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर, नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्। कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित्।।
James
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