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आपके पास देवांगनाएं आईं, अप्सराएं आईं पर आपका मन विचलित नहीं हुआ। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। तेज हवा, अंधड़, बवंडर और तूफान की बात छोड़ दें। यदि प्रलयकाल का पवन भी आ जाए, जिससे छोटे-मोटे पर्वत डोल गये, चट्टानें खिसक गईं। क्या उस प्रलयकाल के पवन से मेरु पर्वत कभी डोलता है? वह कभी नहीं डोलता। देवांगनाएं आपको किंचित् भी विकार मार्ग पर नहीं ले जा सकी, क्षण भर के लिए भी आप विचलित नहीं हुए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
मानतंग के सामने आदिनाथ का स्तोत्र था इसलिए आदिनाथ की स्तुति में इस श्लोक की रचना की। यदि मानतुंग जम्बूकुमार का स्तोत्र बनाते तो शायद इस श्लोक को इस प्रकार बना देते
चित्रं किमत्र यदि तेष्टनवांगनाभिर्, नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित्।। हम विचार करें-चेतना का पक्ष कितना मजबूत है। कुछ लोगों का मनोबल कितना दृढ़ होता है, संकल्प कितना मजबूत होता है। जो संकल्प कर लिया उसमें कोई परिवर्तन नहीं ला सकता। इसका नाम है 'धृति'। दशवैकालिक सूत्र के नियुक्तिकार ने लिखा-'जस्स धिई तस्स सामण्णं'- जिसमें धृति है उसमें श्रामण्य है, साधुत्व है। धृति की बहुत सुंदर परिभाषा की गई–'मनोनियामिका बुद्धिः धृतिः' जो मन पर नियंत्रण करने वाली बुद्धि है उसका नाम है धृति।
सब पत्नियों ने कहा-'स्वामी! आपकी धृति को साधुवाद। ऐसा धैर्य का परिचय कोई विरल व्यक्ति ही दे सकता है। आग पर मोम या मक्खन रखा और वह पिघले नहीं, ऐसा परिचय आपने दिया है। आप जैसा धीर हमने नहीं देखा। विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः-विकार का निमित्त मिलने पर भी जो विकृत नहीं होता, उसका नाम है धीर। आप सचमुच धीर पुरुष हैं। आपने बड़ा काम किया है।' ____ 'स्वामी! हमारा दृष्टिकोण तो भौतिकवादी था, भोगवादी था। हम स्वयं भोग में रहना चाहती थी और आपको भी भोग में रखना चाहती थी पर आपने तो सारी बात उलट दी।'
इस भोगवादी युग में कोई ऐसा जम्बूकुमार प्रगटे, जो एक ही रात में आठ-आठ को समझा दे तो कितना बड़ा काम हो जाए। यह मन और चेतना को बदलने का प्रश्न है। यदि एक व्यक्ति रोज भोग ही भोग की बात बोलता है, सोचता है, सुनता है तो वह भोग में चला जायेगा। उसे त्याग की बात सुनाओ, त्याग की बात सुनते-सुनते एक क्षण ऐसा आएगा कि त्याग की चेतना जाग जायेगी। जैसी बात सुनो, वैसा परिणमन शुरू हो जायेगा। एक बात रोज सुनो तो वही-वही दिखाई देगी। दूसरी बात सुनो तो परिवर्तन आना शुरू होगा पर समस्या यह है-कहीं कोई सुनाने वाला नहीं मिलता और कहीं कोई सुनने वाला भी नहीं मिलता। व्यास ने लिखा था-ऊर्ध्व बाहु विरोम्येष न च कश्चित् श्रृणोति माम्-मैं हाथ उठा-उठाकर चिल्ला रहा हूं पर कोई सुनने वाला नहीं है। जैन आगमों में यह निर्देश वाक्य मिलता है-'अणुसट्ठिं सुणेह मे'-मैं कह रहा हूं, तुम ध्यान से सुनो।
क्या आपके मन में यह प्रश्न उठता है? आठ स्त्रियां एक साथ एक रात में वैरागी बन सकती हैं तो क्या आठ भाई वैरागी नहीं बन सकते? आठ बहनें वैरागिन नहीं बन सकतीं? यदि कोई जम्बूकुमार जैसा समर्थ समझाने वाला मिल जाए तो बदलाव आ सकता है। जिनका एकदम रागात्मक दृष्टिकोण था, उन २८२
गाथा परम विजय की