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राजा ने पूछा-क्यों? 'यह राजद्वार है, राजप्रासाद है। ऐसे कैसे जा सकते हो? बिना स्वीकृति के कोई भीतर नहीं जा
सकता।'
गाथा परम विजय की
द्वारपाल को काफी समझाया पर वह नहीं माना तब राजा बोला-'मैं तो तुम्हारा राजा हूं। तुम मुझे रोकने वाले कौन हो?'
'राजा तो भीतर बैठा है। तुम कौन से राजा हो?' । 'अरे मैं वन-भ्रमण के लिए गया था, वापिस आ गया हूं।'
इतना कहने पर भी द्वारपाल नहीं माना। राजा ने अपना थोड़ा-सा रूप दिखाया। द्वारपाल ने भी कुछ ध्यान देकर देखा तो पहचान लिया, उसने कहा-'महाराज! आप जा सकते हैं पर भीतर में तो एक राजा और बैठा है।'
राजा अचानक महल में गया, अंतःपुर में प्रवेश किया, उसने देखा- महारानी विराजमान है और उसके गले में हाथ डाले हुए एक पुरुष बैठा है। राजा को गहरा आघात लगा। उसे योगी की मुस्कान का रहस्य समझ में आ गया।
आयो महलों में देखे है, राणी प्रेमी स्यूं मुरझ रही।
जोगी री मुळकण राजा रे, नैणां में रह रह उलझ रही।। महारानी और प्रेमी के प्रेमालाप का दृश्य देख राजा के मन में इतनी घृणा हुई कि बिना कुछ कहे तत्काल मुड़ गया। जंगल की ओर चल पड़ा। योगी के पास पहुंचा। योगी को प्रणाम किया।
तत्काल मुड्यो बांही पगलां, जोगी रै चरणां शीश धर्यो।
अब अमरजड़ी साची ले ली, जोगी अपणो कर शीश धर्यो।। 'राजन्! आ गए।' योगी ने स्नेहिल स्वर में पूछा। 'हां!' 'रानी से बात कर आए?' 'नहीं महाराज।' 'क्यों?' 'उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। 'राजन्! क्या हुआ?'
राजा ने अपना सिर जोगी के चरणों में टिका दिया। आंखों से टप-टप पानी की बूंदें गिर रही हैं। आर्द्र नयन और अवरुद्ध कंठ से राजा बोला-'सिद्धयोगी! आपने मेरी आंखें खोल दीं। सचमुच मेरी आंखें बंद थीं। अब आंखें खुल गई हैं। मैं जिस अमरजड़ी की खोज में था, वह एक भ्रम था। वास्तविक अमरजड़ी तो आपके पास है। वह अनुग्रह कर मुझे दें।'
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