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गाथा परम विजय की
तपस्वी पूछते—'भाई! क्यों आये हो?' 'महाराज! अमरजड़ी लेने आया हूं।' 'भाई! कौन-सी अमरजड़ी?'
'महाराज! जिसे खाने पर आदमी बूढ़ा नहीं होता, जिसे खाने पर आदमी कभी मरता नहीं है, वह अमरजड़ी मुझे चाहिए।'
तपस्वी स्पष्ट शब्दों में कह देते–'भाई! यहां से चले जाओ, यहां कुछ नहीं है। यह तो मारवाड़ की भूमि है, यहां क्या मिलेगा?'
राजा आगे बढ़ा, अनेक जंगलों को पार कर हिमालय तक पहंच गया। हिमालय की अधित्यका में सैकड़ों-सैकड़ों साधक तप तप रहे थे। राजा उस संन्यासी के पास गया, जो बड़ा तेजस्वी लग रहा था। दीर्घ तपस्वी जैसा प्रतीत हो रहा था। राजा ने तपस्वी को नमस्कार किया, उपासना में बैठ गया।
तपस्वी का ध्यान पूरा हुआ, आंखें खोली, पूछा-'भाई! क्यों आये हो?' 'महाराज! मैं अमरजड़ी के लिए आया हूं।' 'कौन-सी अमरजड़ी?'
'महाराज! आप सिद्धपुरुष हैं, तपस्वी हैं, आप तो उसे जानते हैं। जिस जड़ी को खाने पर कोई मरता नहीं है।'
'मुझे वह अमरजड़ी दो। मैं मरना नहीं चाहता' यह कहते हुए राजा भावुक हो उठा। उसकी आंखों से अश्रु छलक पड़े। उसने योगी के पैरों को अपने आंसुओं से धो डाला
मैं नहीं मरूं मैं नहीं मरू, द्यो अमर जड़ी द्यो अमर जड़ी। राजा री भावुक आंख्या स्यूं, पाणी री बूंदां टपक पड़ी।। टप टप परनालो चाल पड्यो, गीला जोगी रा पांव कऱ्या। होठां री फड़कण पून बणी, होग्या भीतरला घाव हऱ्या।। दिल की धड़कण अणमाप बढ़ी, नाकां में सांस न अब मावै। जो आग धुकी है पाणी में, वा पाणी स्यूं किम बुझ जावै।। यूं दिल री पीड़ा झाइ झाइ, हलको कर मन रो बोझ भार।
वीणा रो टूट्यो सांध तार, बोल्यो ले वन रो दिल उधार।। राजा ने अपने मन की आकांक्षा को प्रस्तुत करते हुए कहा-महाराज! आप मुझे ऐसी जड़ी बूटी दें जिससे मैं अमर बन जाऊं। मेरा यौवन स्थिर हो जाए। यह बुढ़ापा कभी न सताए।'
मैं अमर बणूं महाराज! इसी, यो इमरत री बूंटी चूंटी।
थिर बण ज्यावै जोवन म्हारो, बुढ़ापो टंग ज्यावै खूटी।। संन्यासी ने राजा की आंखों को देखा, आंखों में छिपी आकांक्षा को देखा। आंख को देखकर व्यक्ति का अध्ययन हो जाता है, उसके मानस को पढ़ लिया जाता है। आंख में से चेतना बाहर निकलती है। आंख
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