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खिड़कियां हैं, उन खिड़कियों से दिमाग तक पहुंचा जा सकता है। संन्यासी पहुंचा हुआ साधक था, समझ गया-भोले आदमी को किसी ने भरमा दिया है, ठग लिया है और ठगाई के कारण यह यहां आया है। संन्यासी बोला-'अरे भाई! अमरजड़ी किसलिए चाहिए ?'
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विषयासक्त राजा ने महारानी को भी अमरता का दान देने की प्रार्थना की- 'महाराज ! मेरी महारानी मुझसे परम स्नेह रखती है। वह भी अमर बने । हम दोनों के शरीर अलग हैं किन्तु आत्मा एक है। उसका सुहाग अमिट बन जाए। मैं महारानी का इंगित पाकर ही ममता के इन मोतियों को लाया हूं।' - यह कहते हुए राजा ने मोतियों का हार योगी के चरणों में उपहृत कर दिया।
औ! अमर बणै राणी म्हारी, जो राखै म्हा स्यूं परम नेह । है एक आतमा दोनां री, दीखे है न्यारी देह देह ||
औ! अमिट सुहाग बणै बी रो, ईं कारण वन में आयो हूं। इंगित पाकर के राणी रो, ममता रा मोती ल्यायो हूं।।
सिद्धयोगी ने अपने दूरदर्शन से सारी स्थिति को देख लिया, वह बोला- 'भाई ! मैं समझ गया हूं। तुम राजा हो और अमरजड़ी के लिए आए हो। पर तुम एक काम करो, एक बार फिर राजप्रासाद में चले जाओ, अपनी रानी से मिल कर पुनः मेरे पास आओ तो मैं तुम्हें अमरजड़ी दे दूंगा।'
'महाराज! जैसी आपकी इच्छा, पर अब जाकर मैं क्या करूंगा ? देना है तो दे दीजिए। बार-बार आने से क्या होगा? संन्यासीप्रवर! आप जानते हैं- मैं राजा हूं। मैंने कितना कष्ट सहा है! मैं कितना भटका हूं! आप मुझे फिर भेज रहे हैं!'
राजा की नासमझी पर योगी मुस्करा उठा। उसके हृदयवेधक हास्य से राजा का मुख म्लान हो गया । उसने रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा
वन री हरियाली हांस उठी, पंछ्या री पांख्यां फड़क उठी । राजा री भोली बातां पर, जोगी री आंख्यां मुळक उठी।। सारे वायु रै मंडल में, हांसी रो कहको छूट गयो । अपणों सो मूंढो लेकर के, चुपचाप नरेसर ऊठ गयो ।।
'राजन्! एक बार तो जाना होगा। बिना तप तपे अमरजड़ी कभी नहीं मिलती। वह उसको मिलती है जो तपस्या करता है। एक बार तो कष्ट सहन करना होगा। तुम जाओ और सीधे अपने अंतःपुर में चले जाओ। वहां महारानी से मिलकर उसकी सलाह लेकर मेरे पास आओ, मैं तुम्हें अमरजड़ी दे दूंगा।'
'ठीक है महाराज! जैसी आपकी आज्ञा । '
विवश राजा ने संन्यासी को प्रणाम कर अपने राज्य की ओर प्रस्थान किया। दो-तीन सप्ताह तक अनवरत यात्रा कर अपने राज्य में आया। उसका वेश बदला हुआ था । दाढ़ी बढ़ गई थी। यात्रा से रूप रंग बदल गया। राज्य में अचानक आने की कोई आशा भी नहीं थी। रानी ने यह मंत्र पढ़ा दिया था - 'देखो ! जा रहे हो, अमरजड़ी लिये बिना आ गये तो ठीक नहीं होगा।' राजा अचानक महल में आया। दरवाजे पर संतरी ने रोक दिया, कहा-'भीतर नहीं जा सकते।'
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गाथा
परम विजय की
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