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गाथा परम विजय की
दूसरी बात- बहुअन्तरायम्- सांसारिक भोग में बहुत बाधाएं हैं। आज तक कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ है, जिसने सांसारिक भोगों को निर्विघ्नता से भोगा हो।
तीसरी बात न य दीहमाउं - आयुष्य बहुत छोटा है, संक्षिप्त है। इस छोटे से जीवन को भोगों में बरबाद करना उचित नहीं है। इसलिए गृहवास में रहना पसंद नहीं है, भोग का जीवन स्वीकार्य नहीं है।' ‘प्रिये! मैं जो गृहत्याग कर रहा हूं, उसके ये तीन कारण बड़े महत्त्वपूर्ण हैं—अशाश्वतता, बहुविघ्नता और आयुष्य की अल्पता
असासयं दठु इमं विहारं, बहु अंतरायं न य दीहमाउं । तम्हा गिहंसि न रई लहामो, आमंतयामो चरिस्सामु मोणं ।।'
वासुदेव कृष्ण ने थावच्चा पुत्र से कहा- 'तुम अभी दीक्षित मत बनो। गृहवास को भोगकर दीक्षित हो
जाना।'
थावच्चा पुत्र ने कहा–‘महाराज! यदि आप दो बातों का आश्वासन दें तो मैं दीक्षा नहीं लूंगा। पहली बात है - मैं कभी मरूंगा नहीं। दूसरी बात है - मैं कभी बीमार नहीं बनूंगा । अमृतत्व और आरोग्य - इन दो बातों का आश्वासन दें।'
कभी-कभी छोटी अवस्था वाला भी प्रौढ़ बात कह जाता है, गंभीर चिंतन दे देता है। इस गंभीर प्रश्न को सुनकर वासुदेव कृष्ण स्तब्ध रह गए।
वासुदेव कृष्ण ने कहा-'मैं तुम्हें राज्य दे सकता हूं, राजा बना सकता हूं, धनवान बना सकता हूं किन्तु अमर बनाना मेरे वश की बात नहीं है।'
थावच्चा पुत्र ने कहा- 'तो मेरा भी घर में रहना संभव नहीं है । '
‘प्रिये! जिस व्यक्ति में यह अमरत्व की भावना, शाश्वत की भावना जाग जाती है, जिसकी विवेक चेतना प्रबुद्ध हो जाती है उसका घर और भोगों के प्रति आकर्षण हो नहीं सकता । '
जम्बूकुमार ने कनकसेना की ओर उन्मुख होते हुए कहा- 'प्रिये ! तुमने मुझे अनवसरज्ञ कहा। किन्तु मैं उस किसान जैसा अनवसरज्ञ नहीं हूं। मैंने काम भोग की प्रकृति को समझा है, उसके परिणामों को जाना है। मैं क्षण मात्र सुख देने वाले काम-भोगों में उलझ कर उस वानर जैसा मूर्ख बनना नहीं चाहता।'
'स्वामी! आप बताइए वह वानर कौन था? और उसने कैसी मूर्खता की ?'
'प्रिये! एक जंगल में एक वानर-युगल रहता था। वह वन बहुत रमणीय था। फलदार वृक्षों से आकीर्ण था। पास में सरिता कलकल ध्वनि करती बहती थी । पानी भी बहुत मधुर था। वानर - वानरी पूर्ण सुखी थे। उन्हें पर्याप्त भोजन और पानी उपलब्ध था। एक दिन एक तरुण वानर उस वन में आया। उसने वृद्ध वानर को तंग करना शुरू कर दिया। वह कलह और संघर्ष करने लगा | वृद्ध वानर परेशान और दुःखी हो गया । वह उस वन को छोड़ने के लिए विवश बन गया। उसने अपने लिए दूसरे वन की खोज प्रारंभ की। वह चलते-चलते उस वन में पहुंचा, जो विशालकाय पर्वतों से घिरा हुआ था । वानर ने फल खाकर क्षुधा का शमन किया। क्षुधा के शांत होते ही प्यास सताने लगी। उसने इधर-उधर पानी की खोज की पर कहीं पानी नहीं मिला।'
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