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'क्या तुम्हें उसकी करुण कथा सुनाऊं ?'
'हां, स्वामी! किन्तु मेरा मन आपकी बात 'प्रिये! तुम क्या कहना चाहती हो ?'
'स्वामी! क्या हम कर्जदार बनना चाहती हैं? हमें क्या जरूरत है कर्जा लेने की। हमारे पास इतनी अपार संपदा है कि हम स्वयं दुनिया को कर्जा दे सकते हैं। कर्जा लेने की बात ही कहां
सुनकर
आश्चर्य से भर उठा है।'
'प्रिये! तुम चारक की कथा सुनोगी तो स्वयं समझ जाओगी कि कर्जदार कौन होता है और उसे कैसा दुःख भोगना पड़ता है?'
'स्वामी! आपने यह भी कहा- मैं चोर बनना नहीं चाहता पर प्रियतम ! हमारे घर में कोई कमी कहां है ? हमें चोरी करने की भी कोई जरूरत नहीं है। चोरी तो वह करता है, जिसकी आदत बिगड़ जाती है या जो गरीबी के अभिशाप से अभिशप्त होता है। स्वामी! हम गरीब नहीं हैं। हमारी आदत भी गलत नहीं है। अच्छे कुल में जन्म लिया है, अच्छे संस्कार मिले हैं। हम ऐसे कार्य क्यों करेंगी?'
'प्रिये! पहले चारक की कथा तो सुनो। उसमें इस प्रश्न का उत्तर भी मिलेगा।' 'अच्छा स्वामी!'
“प्रिये! एक गांव में एक क्षत्रिय रहता था। बहुत समृद्ध और प्रतिष्ठित । उस क्षत्रिय के घर में बहुत बढ़िया घोड़ी थी। घोड़ी की सार-संभाल के लिए उसने एक नौकर रखा। उसका नाम था चारक। वह घोड़ी की देखभाल करता। उस घोड़ी के लिए अलग से धान की बुवाई होती । खेत का विशाल भूभाग इसलिए आरक्षित था कि वहां जो अनाज बोया जाए, वह घोड़ी के खाने के लिए काम आए। चारक को आदेश था-घोड़ी को अनाज खिलाया जाए किन्तु नौकर ने इस आदेश का पालन नहीं किया। खेत में जो अनाज होता, उसे वह चारक चुरा लेता । उस अनाज को अपने घर ले जाता और घोड़ी को घास-फूस खिला देता। उसने अनाज की चोरी की और चोरी के साथ वह घोड़ी का कर्जदार भी बन गया।'
'ओह!'
'प्रिये! जिसके हिस्से में जो चीज है वह उसको न देना और स्वयं ले लेना - यह चोरी भी है, उसके साथ ऋण भी है। इस चौर्य प्रवृत्ति और ऋणानुबंध के साथ कर्म का कर्जा भी चढ़ता चला गया।'
'प्रिये! सबसे बड़ा कर्जा कर्म का होता है। कोई दूसरा कर्ज होता है तो व्यक्ति सोचता है - सिर पर कर्ज है, भार का अनुभव होता है । किन्तु यह कर्म का कर्ज ऐसा है कि व्यक्ति करता चला जाता है, कभी सोचता ही नहीं है - कितना बोझ हो रहा है, कितना भार बढ़ रहा है और दिमाग कितना बोझिल बन रहा है।'
'प्रिये! जब कर्म का परिपाक होता है, कर्म उदय में आता है, कर्ज की एक साथ मांग आती है तब व्यक्ति पछताता है और दुःखी भी बनता है पर वह कुछ कर नहीं पाता । '
“प्रिये! वह चारक चोरी करता रहा, कर्जा भी चढ़ता रहा और कर्म का बंधन भी होता रहा।'
"प्रिये! जो चोरी करेगा उसको निषेधात्मक भावों में जाना पड़ेगा। खराब भाव, खराब विचार आते हैं तभी गलत काम होता है। भाव की विकृति के बिना संभव नहीं है दूसरे के स्वत्व का अपहरण । वह चारक
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गाथा
परम विजय की
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