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'स्वामी! क्या ये इंद्रियां, ये भोग के साधन, ये मनोनुकूल समर्पिता कन्याएं-क्या यह सुख का संसार नहीं है?'
'प्रिये! तुम प्रलोभन देती हो कि इतना धन आया है, इतनी संपदा है, इतना सब कुछ है, पर मैं जो चाहता हूं उसके सामने यह एक तिनके जितना भी नहीं है।'
'स्वामी! आप कैसा सुख चाहते है?' 'अप्या परमप्पओ होइ-मैं आत्मा से परमात्मा बनना चाहता हूं।' 'स्वामी! परमात्मा बनने से क्या मिलेगा आपको?' 'मुझे इतना सुख मिलेगा कि जितना इस घर में, इस धन में नहीं है।' 'इतना सुख कहां से आयेगा?' 'प्रिये! वह बाहर से नहीं आयेगा, अपने भीतर से आएगा। अपने भीतर है इतना सुख।'
'प्रिये! महावीर ने जो कहा है, उसे ध्यान से सुनो। 'सव्वेसिं सुखरासिं'-सब जीवों के सुख का ढेर कर लो। जैसे अनाज का ढेर होता है, वैसे एक-एक जीव के सुख को लो, सब जीवों के सुखों को लेते जाओ। जो अनंत जीव इस संसार में हैं, उन सब जीवों के सुख का एक विशाल ढेर बना लो। दूसरी ओर एक वीतराग का सुख, मुक्त आत्मा का सुख या ईर्यापथिकी क्रिया में रहने वाले साधक का सुख सामने रख दो। एक विशाल तराजू लाओ। उसमें एक ओर तो सारी दुनिया के सुख का ढेर रख दो, दूसरी ओर एक
गाथा वीतराग अथवा मुक्त आत्मा के सुख को रखो। तराजू के दोनों पल्लों को तौलो। जिस पल्ले में वीतराग का परम विजय की सुख है, वह नीचा रहेगा। उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है सारी दुनिया का सुख।' ___'प्रिये! मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं कि जो थोड़े सुख प्राप्त हैं उन्हें छोड़कर कोरी कल्पना में चला जाऊं और थोड़े से भी वंचित हो जाऊं। अप्पंपि य मा बहुयं लुपेज्जा-मुझे थोड़े के लिए बहुत को नहीं गंवाना है। प्रिये! क्या तुम थोड़े सुख के लिए बहुत को गंवाना चाहती हो?'
'स्वामी! ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो थोड़े के लिए बहुत को खोए?'
'प्रिये! फिर इन क्षणिक पौद्गलिक सुखों में मत उलझो। परम सुख के पथ पर प्रस्थान का संकल्प करो। वही तुम्हारे लिए आदेय और श्रेय होगा।' ____ जम्बूकुमार के इन भावपूर्ण वचनों ने कनकश्री के हृदय को छू लिया। उसका मानस भी राग से विराग की दिशा में चरणन्यास के लिए समुद्यत बन गया।
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