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गाथा
आत्मा की भी चोरी होती है। केवल दूसरी वस्तुओं की चोरी नहीं होती, अपनी भी चोरी होती है। मैंने स्वयं मन में सोचा, संकल्प किया और वैसा नहीं करता हूं तो यह एक प्रकार से चोरी है।' "प्रिये! महावीर ने चोरी के अनेक प्रकार बतलाए हैं। तुमने प्राकृत की इस मर्मस्पर्शी गाथा को पढ़ा है
तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जे नरे।
आयारभावतेणे य, कुव्वई देवकिव्विसं।। जो मनुष्य तप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर होता है, वह किल्विषिक देव में उत्पन्न होने योग्य कर्म का अर्जन करता है।'
एक साधक तपस्वी तो नहीं है किन्तु पतला, दुबला और थका-मांदा है। दूसरा साधु तपस्या कर रहा है। लोग आये, देखा ये महाराज इतने दुबले-पतले हैं, अवश्य ही ये तपस्वी हैं। लोगों ने पूछा-'महाराज! हमने सुना है कि यहां पर एक बड़े तपस्वी साधु हैं। क्या वे आप ही हैं?' वह सरल होता तो यह कह देता-मैं नहीं करता। यदि उसके मन में कपट है तो वह उत्तर देता है-'साधु सब तपस्वी ही होते हैं।' यह चोरी है तपस्या की।
वयतेणे अवस्था की चोरी या वाणी की चोरी, रूवतेणे-रूप की चोरी और आयारभावतेणे आचार और भाव की चोरी। सब साधु समान तो नहीं होते। साधुओं में भी अंतर होता है। किसी ने पूछा-मुनिजी! हमने सुना है एक महाराज बहुत आचारनिष्ठ हैं, उनकी ईर्यासमिति इतनी सधी हुई है कि एक-एक पैर देखदेखकर भूमि पर रखते हैं। क्या वे महाराज आप ही हैं? मुनिजी बोले भोले आदमी! समझते नहीं हो। सब साधु आचारनिष्ठ होते हैं। वह उस आचारनिष्ठ साधु का नाम नहीं बताता। यह आचार की चोरी है। ___ प्रिये! शिष्य को गुरु का आदेश मिला यह काम तुम्हें करना है। शिष्य वह न करे तो यह गुरु-आज्ञा की अवहेलना है।'
_ 'प्रिये! मुझे आत्मा का आदेश मिला है कि मुझे मुनि बनना है, वीतराग बनना है, केवली बनना है। यदि मैं न बनूं तो यह आत्मा की चोरी होगी।'
_ 'प्रिये! तुम जानती हो–कर्म का कर्जा कितना भारी होता है और उसे चुकाना पड़ता है। धन आदि का कर्जा तो कोई यहां न भी चुकाये। व्यक्ति बिना चुकाए मर जाये तो कौन चुकायेगा पर यह कर्म का कर्जा तो ऐसा है कि चुकाए बिना कोई गति नहीं है।'
_ 'प्रिये! तुम महावीर के इस वचन का अनुशीलन करो कडाण कम्माण न अस्थि मोक्खो-कृत कर्म से छुटकारा नहीं मिलता। नत्थि अवेयइता तवसा वा झोसइत्ता–भोगे बिना अथवा तपस्या के द्वारा क्षीण किये बिना छुटकारा नहीं होता।'
'प्रिये! मैं कर्जदार बनना नहीं चाहता। मुझे कर्जदार बनना पसंद नहीं है।'
'स्वामी! आप क्या चाहते हैं? कर्जदार बनना भी नहीं चाहते और चोरी करना भी नहीं चाहते, आखिर चाहते क्या हैं?
'प्रिये! मैं चाहता हूं परम सुख।'
परम विजय की