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चाहता हूं। वेश्या ने उसकी सूरत शक्ल को देखा और फटकारा-मूर्ख कहीं का! चले जाओ। तुम इतने भद्दे हो कि मैं तुम्हारे सामने देखना भी नहीं चाहती।'
यह एक वैरानुबंध का प्रतिफल है। जाने-अनजाने वैरानुबंध हो जाता है। चारक ने उसके भोजन को चुराया, इसलिए अनजान में भी एक वैर का अनुबंध हो गया। आचार्य भिक्षु ने अनुकंपा की चौपाई में बहुत सुंदर लिखा-वैर से वैर का अनुबंध होता है, मित्र से मित्र का अनुबंध होता है। एक होता है तात्कालिक काम और एक होता है अनुबंध। अनुबंध का मतलब है कि एक श्रृंखला बन जाती है। एक कड़ी के बाद दुसरी कड़ी चलती रहती है। शृंखला, सांकल अथवा कड़ी अविच्छिन्न हो जाती है। वैर का अनुबंध होता है और मैत्री का भी। आज किसी का उपकार किया, अगले जन्म में वह भी उपकार कर देगा। आज किसी का नाश किया, अगले जन्म में वह भी विनाश कर देगा। यह अनुबंध चलता रहता है।
वेश्या के मन में घृणा पैदा हो गई। उसे देखते ही दुत्कार दिया। चारक के मन में राग पैदा हो गया। वह उसे छोड़ता नहीं है। आखिर बहुत प्रयत्न किया। ऐसा कुछ अवसर मिला कि वह वेश्या के घर में नौकर बन गया। वहां नौकरी कर रहा है और अपना काम चला रहा है। वेश्या के प्रति बहुत अनुराग था उसके मन में और वेश्या के मन में तीव्र घृणा थी उसके प्रति। उसने बहुत प्रयत्न किया कि वेश्या कभी मुझे प्यार दे, अपना ले। काफी अनुनय किया पर वेश्या ने कभी सामने देखना भी पसंद नहीं किया। उसने कहा-'तुम नौकर हो, तुम्हें जो काम सौंपा हुआ है, करते रहो पर मेरे सामने मत रहो।'
इस बात को लेकर चारक के मन में ऐसी ग्रंथि बनी कि वह संतप्त रहने लगा। जिसके मन में तीव्र गाथा अभिलाषा जाग जाती है, वह सपना पूरा नहीं होता, वह कल्पना पूरी नहीं होती तो व्यक्ति दुःखी बनता है।
परम विजय की चारक इतना दुःखी बना कि रात-दिन आर्तध्यान में रहने लगा और उसी आर्तध्यान में दुःख का वेदन करता हुआ मरण को प्राप्त हुआ।
कथा का उपसंहार करते हुए जम्बूकुमार ने कहा-'कनकश्री! तुम भी मुझे चारक बनाना चाहती हो? क्या मैं कर्जदार बनूं? क्या मैं चोर बनूं? उसने क्षत्रिय के अनाज की चोरी की। क्षत्रिय ने घोड़ी को अनाज खिलाने का काम सौंपा था किन्तु वह बीच में स्वयं खा जाता था। उसने चोरी की और चोरी के कारण कर्म का इतना बोझ सिर पर कर लिया, इतना कर्जा कर लिया कि मरकर भी कुरूप आदमी बना। निरंतर प्रताड़ना
और तिरस्कार का पात्र बना, अंतिम समय में भी निकृष्ट परिणामों में मरा। प्रिये! मैं न तो कर्जदार बनना चाहता हूं और न चोरी करना चाहता हूं।'
'स्वामी! इसमें चोरी कहां हैं? आप किसका चुरा रहे हैं? आपके पास प्रचुर धन-संपदा है। चोरी का प्रश्न ही नहीं उठता?'
'प्रिये! आज्ञा की अवहेलना भी चोरी है।' 'स्वामी! आप किसकी आज्ञा की अवहेलना कर रहे हैं?'
'प्रिये! मुझे मेरी अंतरात्मा का आदेश मिला है कि जम्बूकुमार! तुम्हें वीतराग बनना है। जम्बूकुमार! तुम्हें केवली बनना है। मेरी अंतरात्मा के इस आदेश का पालन न करूं तो यह आत्मा की चोरी होगी। प्रिये!
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