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गाथा परम विजय की
भंते!' भंते! यह कैसे है? तब भगवान महावीर कहते हैं-'हंता गोयमा! हां गौतम ऐसे हैं।' उस वृद्धा के लिए ‘गोयमा’–‘ओय मां' ‘ओय मां' हो गया और उसने यह मान लिया- मुनिजी के पेट में दर्द हो गया है।'
'स्वामी! आप भी उस बुढ़िया की तरह पूरी बात को समझ नहीं रहे हैं, विवेचन भी नहीं कर रहे हैं।' ‘स्वामी! त्याग कब होता है? पहले तीन बातें चाहिए। पहली बात है-ठीक से सुनो या पढ़ो। फिर उसको जानो कि सही अर्थ क्या है ? जानने के बाद यह विवेचन करो कि क्या छोड़ना है? क्या ग्रहण करना है? हेय क्या है, उपादेय क्या है? विवेक के बाद होता है प्रत्याख्यान और संयम।'
'स्वामी! आपने प्रत्याख्यान को तो पकड़ लिया किन्तु पूर्ववर्ती तीन बातों को छोड़ दिया । न कोई बात आप ठीक से सुनते हैं, न उसका ज्ञान और विवेक करते हैं। आपने सीधा प्रत्याख्यान को पकड़ लिया, छलांग लगा दी। स्वामी! यह सीधी छलांग अच्छी नहीं है। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना चाहिए, सीढ़ी दर सीढ़ी उतरना चाहिए।'
रूपश्री ने अपने वक्तृत्व का रूप पूरा निखारा। उसकी तार्किक प्रस्तुति को सबने अवधानपूर्वक सुना।
जम्बूकुमार ने शांत और अविचल भाव से सारी बात सुनी। प्रसन्नता और मुस्कराहट के साथ बोला‘रूपश्री! तुम कोरी रूपश्री नहीं हो, बुद्धि भी तुम्हारी रूप के अनुरूप है, बोलने में भी बड़ी कुशल हो। तुम बात को इस प्रकार प्रस्तुत करती हो कि कड़वी घूंट भी सरसता के साथ पिला देती हो । किन्तु.... '
'स्वामी! मेरा तर्क उपयुक्त है, वार्ता समीचीन है फिर किन्तु क्या है ? '
जम्बूकुमार बोला-'प्रिये! मैं अपनी बात भी तो कहना चाहूंगा।'
'स्वामी! मैं भी सुनूंगी आपकी बात पर मेरी बात को काटना मत। उस पर जरा गौर करना। मैंने इतनी गहरी बात कही है, उस पर थोड़ा चिंतन अवश्य करना । '
'प्रिये ! ठीक है। मैं दो क्षण चिंतन करूंगा, चिंतन के बाद विश्लेषण करूंगा और फिर अपनी बात तुम्हारे सामने प्रस्तुत करूंगा।'
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