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गाथा परम विजय की
भाषा का काम एक व्यक्ति के विचार को दूसरे तक पहुंचाना है। यदि भाषा नहीं होती तो सबकी बात अपने-अपने मन में रहती, बाहर नहीं जाती। यह संप्रेषणीयता भाषा की विशेषता है। किन्तु यह दुनिया के सब प्राणियों को कहां प्राप्त है?
दुनिया के जितने प्राणी हैं उनमें सबसे ज्यादा भाषा का विकास शायद मनुष्य में हुआ है। नरक में भाषा का कोई विकास नहीं है। तिर्यंच जीवों में भी भाषा का बहुत विकास नहीं है। बहुत छोटा शब्दकोश है पशु-पक्षियों का। देवता की भाषा का भी बड़ा विचित्र काम है। देवता की कोई भाषा है या नहीं यह भी खोज का विषय है। कहा जाता है-देवता अर्धमागधी प्राकृत में बोलते हैं। कुछ कहते हैं-संस्कृत में बोलते हैं। पर लगता ऐसा है कि उनकी भाषा कंपन की भाषा होती है, मनुष्य के जैसी स्पष्ट भाषा नहीं होती। किसी मारवाड़ी के मुंह बोलता है तो देवता मारवाड़ी भाषा बोल लेता है। गुजराती व्यक्ति के मुख से बोलता है तो गजराती में बोलता है। किसी मुसलमान के मुंह बोलता है तो उर्द, फारसी में बोल लेता है। जैसा माध्यम मिला, वैसी देवता की भाषा हमारे सामने आती है। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसमें व्यक्त भाषा का विकास हुआ है। उसका विशाल शब्दकोश है, जिसमें लाखों शब्द हैं।
मनुष्य कविता बनाता है, गीत बनाता है, निबंध लिखता है, व्याख्याएं करता है। भाषा का कितना प्रयोग करता है मनुष्य। वह हर बात को वाणी के द्वारा प्रकट कर देता है। भाषा एक माध्यम अवश्य है पर एक-दूसरे की बात समझना केवल भाषा का ही काम नहीं है। एक आदमी एक बात कह रहा है, दूसरा उसको उलटा पकड़ रहा है। भाषा तो है, पर बात समझ में नहीं आती। कारण क्या है? कुछ अवरोध रहते हैं जो वहां तक पहुंचने नहीं देते। व्यक्ति पूरी बात सुनता भी नहीं है। सुनता है तो उसका अर्थ नहीं समझता, हृदय में वह बात नहीं उतरती इसीलिए भाषावान् या भाषावाहक होने पर भी व्यक्ति को एक-दूसरे की बात समझ में नहीं आती। जो बात कनकश्री ने कही, उसे जम्बूकुमार नहीं समझ रहा है। दोनों में एक दूरी बनी हुई है। वह दूरी केवल शब्दों की नहीं, चिन्तन और भावों की बनी हुई है। बहुत सारे लोग प्रवचन सुनते हैं २४४