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गाथा परम विजय की
कनकश्री ने खूब गहरा उपदेश दिया। कटु भाषा का प्रयोग भी किया। मूर्ख की भांति की गधे की पूंछ पकड़ कर अपना नुकसान करने वाला भी बता दिया।
अपना-अपना दृष्टिकोण, अपनी-अपनी भूमिका और अपना-अपना तर्क । कनकश्री जिस भूमिका पर खड़ी है, उस भूमिका में पौद्गलिक सुखों का आसेवन सारपूर्ण लगता है। मोहात्मक दृष्टिकोण भी यही है - संसार में रहो, सब कुछ खाओ, पीओ, मौज करो। अनेक व्यक्तियों ने मुझे भी यह सुझाव दिया- आपको सातों चीजें खानी चाहिए। सातों चीजें क्या हैं - यह तो शायद नहीं जानते पर यह कहावत हो गई -सातों चीजें खानी चाहिए। मैंने कभी इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया पर सुझाव देने वालों का तर्क यही रहा - व्यक्ति हर चीज खाए तो अच्छा रहता है। भोजन के प्रति, इंद्रियों के विषयों के प्रति आकर्षण सहज रहता है। हर आदमी उसी ओर ले जाना चाहता है। त्याग की ओर जाना कठिन है और कोई जाना चाहे तो उसके सामने न जाने कितनी समस्याएं खड़ी कर देते हैं। अभी एक बहिन आई। वह मुमुक्षु बनना चाहती है। हमने पूछा— अवस्था कितनी है? कहां तक पढ़ी हो ? भावना कब से है? उसने सबका समीचीन उत्तर दिया। मैंने पूछा- तुम्हारे माता-पिता क्या कह रहे हैं? पिता पास में खड़े थे, बोले-मम्मी मनाही कर रही है।
मैंने कहा–इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। कोई दीक्षा लेता है तो गृहस्थ को अच्छा नहीं लगता। उसे संसार में रखना ही अच्छा मानता है। दीक्षा लेने की बात प्रायः अच्छी नहीं लगती।
पूज्य कालूगणी का चातुर्मास उदयपुर था। मुनि मीठालालजी की दीक्षा हो रही थी । उस दीक्षा के संदर्भ में शहर के लोगों ने बहुत बवंडर किया । और तो क्या, शाक-सब्जी बेचने वाले कूंजड़ों ने भी एक सत्याग्रह सा शुरू कर दिया। पंचायती नोहरा, जहां चातुर्मास हो रहा था, रात को पत्थरों की वर्षा होने लगी। एक परिवार का व्यक्ति अपने माता-पिता की स्वीकृति से दीक्षा ले रहा था। इसके सिवाय दूसरों को लेनादेना क्या था ? कूंजड़ों को लेना-देना क्या था ? पर सब लोग यह चाहते हैं कि मोह में फंसा रहे, मोह को छोड़कर वीतरागता में कोई क्यों जाए? यह मोहात्मक दुनिया का स्वभाव है।
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जम्बूकुमार ने सारी बात ध्यान से सुनी। कनकश्री की ओर उन्मुख होकर बोले—'कनकश्री! तुम बहुत होशियार और विदुषी हो । अपनी बात को रखने में बड़ी चतुर हो । परन्तु तुम जानती हो - मैंने धर्म को केवल पढ़ा नहीं है, धर्म के मर्म को समझा है। महावीर की यह बात मेरे दिल में बैठ गई है - अगर आत्मा को जानना है तो संबंधों को छोड़ना पड़ेगा। जब तक संयोग और संबंध रहता है, आत्मा का बोध नहीं हो सकता।'
'कनकश्री! मैंने जो सर्वत्याग का निश्चय किया है, उसका सबल आधार है। तुम उसे जानोगी तो तुम्हारे चिन्तन में भी एक नया उन्मेष आएगा।'
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