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गाथा परम विजय की
आहार-पानी करने का ही त्याग है।' एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता, तीसरा दिन भी चला गया। भारमलजी ने न कुछ खाया, न कुछ पीया । निराहार- निर्जल रहे। आखिर झुकना पड़ा किसनोजी को। वे आचार्य भिक्षु के पास आये और बोले - 'स्वामीजी ! यह भारमल तो आपके पास रहेगा। आप ही इसे संभालें । '
यह सन्मार्ग का आग्रह है। अगर सत्य के प्रति अपना आग्रह नहीं है तो काम नहीं चलेगा। दोनों बातें स्पष्ट हैं - एक आग्रह होता है समस्या को पैदा करने वाला, राग-द्वेष को बढ़ाने वाला और एक आग्रह होता है सत्य की ओर प्रस्थान कराने वाला।
एक ग्रामीण आदमी का किसी के साथ लेन-देन था। उसका साहूकार से ऋण लिया हुआ था । साहूकार ने कहा–‘भाई! रुपया लाओ।'
किसान बोला-'यह लो तुम्हारा रुपया । '
'कितने लाये हो ?'
'देखो, गिन लो।'
साहूकार रुपए गिन कर बोला- भाई ! क्या तुम्हें याद नहीं है कि मैंने दो बार तीस-तीस रुपये दिये थे। तीस और तीस होते हैं साठ। तुम लाये हो चालीस रुपए।'
किसान बोला–‘तुमने जितने दिये उतने दे रहा हूं। तुम कहते हो - तीस-तीस साठ होते हैं और मैं कहता हूं- तीस-तीस चालीस होते हैं। '
साहूकार ने कहा- 'आखिर न्याय क्या है ? '
ग्रामीण आग्रह के स्वर में बोला- 'बस, मैं कहता हूं। मैं नहीं मानूंगा, तुम्हारी बात। तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी कि तीस और तीस चालीस होते हैं।'
यह मिथ्या आग्रह है, गणित की सचाई को झुठलाने का प्रयत्न है। इस आग्रह को अच्छा नहीं कहा जा सकता। यह लौकिक सचाई है, व्यवहार की सचाई है । इस लौकिक सच को झुठलाने का प्रयत्न भी अच्छा नहीं होता। एक है आध्यात्मिक सचाई । जो व्रत लिया, संकल्प लिया, उसके प्रतिग्रह है। प्राण जाये तो भले ही चला जाये पर प्रण नहीं जाना चाहिए। आग्रह अच्छा या बुरा- यह सापेक्ष है तो अनाग्रह अच्छा या बुरा-यह भी सापेक्ष है। हम एकांततः यह नहीं कह सकते कि आग्रह ही अच्छा है या अनाग्रह ही अच्छा है।
कनकश्री जम्बूकुमार को संबोधित करते हुए बोली- 'स्वामी ! आप तो बड़े आग्रही बन गये हैं। मेरी पांच बहनों ने आपको समझाने का प्रयत्न किया। इतना समझाया पर आपने किसी की बात पर ध्यान ही नहीं दिया। आखिर मेरी बहिनें भी तो समझदार हैं, वे भी कुछ सोच समझकर कह रही हैं।'
‘स्वामी! कम से कम बहुमत की बात तो माननी चाहिए। आप अल्पमत में हैं, अकेले हैं और हमारा बहुमत है। आप बहुमत की बात भी नहीं मान रहे हैं, केवल अपनी जिद पर अड़े हुए हैं। जिसे पकड़ लिया है, उसे छोड़ नहीं रहे हैं। ऐसा लगता है- मां का वह इकलौता बेटा जैसे जिद के कारण दुःखी बना, वैसे ही आप भी दुःखी बनोगे।
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