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गाथा परम विजय की
'प्रियतम ! आपको बुरा लगे तो भले लगे। मैं माफी मांग लूंगी, पर यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है - आप अवसर के जानकार बिल्कुल नहीं हैं। यह मुनि बनने का अवसर ही नहीं है। हर बात अवसर पर करनी चाहिए। अनवसर की बात अच्छी नहीं होती । विवाह का अवसर है और मातम के गीत गाएं तो कैसा लगेगा ? मातम का समय हो और विवाह के मंगल गीत गाएं तो क्या होगा ? मंगल ध्वनि और शोक ध्वनि अपने-अपने स्थान पर उपयुक्त लगती है । अवसर के बिना मंगल-गीत भी अच्छे नहीं लगते।'
एक राजा बड़ा संगीतप्रिय था। उसने एक बार अपने अधिकारियों को आदेश दिया- कोई भी बात कहो तो संगीत में कहो, संगीत के बिना मत कहो । जो संगीत में मुझे अपनी बात कहेगा, उसे मैं पुरस्कार दूंगा। जो बेसुरे सुर में अपनी बात कहेगा, उसकी बात पर ध्यान नहीं दूंगा। एक दिन एक अधिकारी आया, उसे आवश्यक सूचना देनी थी। सीधी स्पष्ट भाषा में सूचना देने का निषेध था। एक मिनट की सूचना देने से पूर्व उसने आलाप शुरू कर दिया - आ आ.....आ.... आधा घंटा आलाप के पश्चात् संगीतमय स्वर में कहा- आज म्हारे राजाजी रै बाग में.... आग लागी औ ।
राजा ने पूछा-'अरे ! क्या कह रहा है?'
'राजाजी रै बाग में आग लागी हो ।' उसने संगीतमय लहजे में पुनः दोहराया।
'आग कब लगी?'
'एक घंटा पहले।'
'तुमने उसी क्षण सूचना क्यों नहीं दी ?'
'महाराज ! सीधी सूचना देता तो आप नाराज हो जाते।'
राजा ने साक्रोश कहा-'मूर्ख हो तुम । उद्यान में आग लग गई और तुम आलाप करते रहे। क्या इतने समय में उद्यान भस्म नहीं हो जायेगा ? तुम अवसर को भी नहीं जानते!'
कनकसेना ने गंभीर स्वर में कहा-'प्रियतम! आप भी अवसरज्ञ नहीं हैं। क्या यह अवसर है दीक्षा लेने का? कल तो पाणिग्रहण किया और आज आप साधु बनने की बात कर रहे हैं! आप अवसर को समझो। अवसर को समझे बिना कोई काम करता है तो वह उस किसान की तरह पश्चात्ताप करता है।'
जम्बूकुमार बोले-'कनकसेना! तुम्हारा भाषण बहुत अच्छा हो रहा है। मैं उसे ध्यान से सुन रहा हूं पर वह किसान कौन था ? जिसने अवसर को नहीं समझा और पश्चात्ताप किया । '
'प्रियतम ! आप उस किसान की कथा को ध्यान से सुनें। दोनों कान खुले रखकर सुनें और केवल सुनें ही नहीं, भीतर तक ले जाएं।'
सुरपुर नगर के बाहर उर्वर भूमि थी। उस भूमि में एक किसान खेती करता था । वह प्रतिदिन खेत की रखवाली करता। समय के साथ फसल काफी बड़ी हो गई। खेत बहुत बड़ा था । सब जगह कैसे रखवाली की जाए? वह पास में शंख रखता और रात को बार-बार शंख बजाता रहता, जिससे कोई भी पशु-पक्षी आए तो आवाज सुनकर बाहर चला जाए। एक रात को ऐसा योग मिला - चोरों का एक दल सुरपुर में आया, जिसमें बीस चोर थे। उस युग में चोरों की पल्लियां होती थीं। कुछ चोर स्वतंत्र होते और कुछ पल्ली बनाकर
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