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गाथा परम विजय की
'महामुनि! मैं पहले मनुष्य बना या देव?'
'जम्बूकुमार! तुम्हारा पहला जन्म मनुष्य का है। तुम्हारा नाम था भावदेव । तुम्हारे छोटे भाई का नाम था भवदेव ।'
जैन साहित्य में भावदेव-नांगला का प्रसिद्ध आख्यान है । साधु-साध्वियां उसे पढ़ते हैं, व्याख्यान सुनाते हैं।
महामुनि ने कहा- 'मनुष्य आयु का भोग कर तुमने समाधिमरण का वरण किया । तुम सनत्कुमार देव बने। देवलोक से च्युत होकर शिवकुमार बना और फिर ब्रह्मलोक में देवता बने। इस पांचवें भव में जम्बूकुमार के रूप में उत्पन्न हुए हो।'
मुनि ने कहा- 'तूने संयम की आराधना की, साधना इतनी प्रबल हुई कि तुम्हारे संस्कार काफी क्षीण हो चुके हैं। भावदेव के जन्म में तो संस्कार ने सताया था, एक बार विचलित भी हो गए थे किन्तु फिर संभल गए। उसके पश्चात् जो साधना की, वह विशुद्ध बनती गई । '
किसी भी व्यक्ति के जीवन में, साधना में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। कोई साधक यह मान लें कि मैं सिद्ध हो गया तो यह भ्रांति है। इस भ्रांति में रहने वाला आगे नहीं बढ़ता, पीछे हट जाता है।
बहुत कठिन है अठारह पाप का त्याग। बहुत कठिन है सामायिक की साधना । अठारह पाप सावद्य योग हैं। उसकी परिज्ञा सरल नहीं है। आदमी असत्य में भी रस लेता है, वासना में भी रस लेता है, निंदा, चुगली, कलह, झगड़ा- इनमें भी रस लेता है । रात-दिन दिमाग उसी में रहता है। बहुत लोग कहते हैं - हमारा विकास नहीं होता? मैंने कहा- विकास कैसे हो? तुम्हारा दिमाग तो इन सब में लगा हुआ है। विकास होगा कैसे ?
जिसकी आत्मा जागृत हो जाती है, चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम प्रबल हो जाता है, चारित्र में रति आ जाती है, वह आत्मरति हो जाता है, आत्मा में रमण करता है, आत्मा को देखने लग जाता है।
आचारांग का प्रसिद्ध सूक्त है - जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे - जो अनन्यदर्शी है, वह दूसरे को नहीं देखता, केवल आत्मा को देखता है, वह अनन्य में रमण करने लग जाता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है । चरित्र मोह का क्षयोपशम जब इतना प्रबल हो जाता है, तब चिंतन की धारा बदल जाती है।
कपिल का क्षयोपशम पक गया था। क्षयोपशम पका तो चिन्तन की धारा बदल गई। जो कपिल किसी के मोह-पाश में फंसा हुआ था, लोभ लालच के कारण रात्रि में घूम रहा था वही कपिल जब धारा बदली तो तन्मय होकर गा उठा।
अधुवे असासयम्पि, संसारम्मि दुःखपउराए ।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ।।
कहां वह याचना का स्वर और कहां यह खोज का दृष्टिकोण ? कौनसा वह कर्म है, कौन सा वह आचरण है जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं? जब यह चिंतन जागता है, सुगति दूर नहीं रहती । 'मैं दुर्गति में
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