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मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाता है - कोई भी व्यक्ति ब्रह्मचारी बनेगा तो पागल बन जायेगा। यह आज मनोविज्ञान की नई अवधारणा है, नई मान्यता है। हमारे सामने भी बहुत प्रश्न आये। हमने इस पर चिंतन किया-यह तर्क एक अपेक्षा से ठीक है। जो गृहस्थ गृहस्थी में रहता है, वह ब्रह्मचारी रहता है तो पागल भी हो सकता है। यह बात भी एक अपेक्षा से गलत नहीं है कि जब तक कोई बड़ा सुख न आए तो व्यक्ति पागल बन सकता है। किंतु जिस व्यक्ति को अपने भीतर में रहा हुआ, छिपा हुआ बड़ा सुख मिल गया, वह पागल नहीं बनेगा, और अधिक तेजस्वी बन जायेगा, विकास कर लेगा । कोई भी व्यक्ति उस सुख को खोजे बिना इस सुख को छोड़ भी नहीं सकता। जिसको परम आनंद मिल गया वह थोड़े सुख को छोड़ देगा।
'पद्मश्री! तुम तो यह कह रही हो - आप स्वर्ग के सुख के लिए वर्तमान के थोड़े सुखों को छोड़ रहे हैं। मैं तो यह कहता हूं कि मुझे परम सुख मिल गया है इसलिए ये सुख अपने आप छूट रहे हैं। मैं परम आनन्द में हूं। क्या अब भी तुम नहीं समझी - मैं कठिहारे जैसा मूर्ख नहीं बनना चाहता। मैं समुद्र का पानी पी चुका हूं। अब मारवाड़ के साठी के कुएं के पास जाकर घास का पूला निचोड़कर प्यास बुझाना नहीं चाहता।' जम्बूकुमार ने पद्मश्री की बात को इतने चातुर्य के साथ काट दिया कि अब बोलने के लिए कोई अवकाश नहीं रहा।
पद्मश्री आत्म-चिंतन में लग गई - मैं अब क्या उत्तर दूं? मेरे पास तो कोई उत्तर नहीं है, मैं निरुत्तर हूं। वह चिंतन की गहराई में चली गई । उसका निष्कर्ष रहा - जम्बूकुमार जो कह रहे हैं, वह सही है। मेरी बात सही सिद्ध नहीं हुई। वास्तव में काम-भोग की प्रकृति ऐसी ही है और उसका स्वरूप भी ऐसा ही है। वह मन ही मन निर्णय की स्थिति तक पहुंच गई। उसने मानसिक स्तर पर निर्णय कर लिया- मुझे भी जम्बूकुमार के संकल्प के साथ रहना है। वही मेरे लिए श्रेयस्कर है।
जम्बूकुमार मौन, पद्मश्री मौन । अब पद्मसेना मुखर हो रही है। उसकी मुखरता का परिणाम क्या होगा ?
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गाथा
परम विजय की
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