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‘प्रियतम! योग ऐसा मिला कि खेल दिखाते दिखाते मदारी उसी नगर में पहुंच गया, जहां उसकी स्त्री पटरानी थी। वह महल के झरोखे पर बैठी थी । गवाक्ष से उसने देखा - एक मदारी आ रहा है, साथ में बंदर है। बंदर जाति के प्रति उसके मन में एक स्वाभाविक आकर्षण था । उसे बंदर कुछ परिचित-सा लगा। थोड़ा ध्यान दिया तो पहचान लिया कि यह तो मेरा पूर्व पति है। यह तो वही बंदर है, जो अतिलोभ से
बन गया।'
पुनः बंदर
पटरानी ने राजा से कहा—'महाराज ! नृत्य देखे हुए बहुत दिन हो गये। आज मैं बंदरों का नाच देखना चाहती हूं।'
राजा ने पूछा—'कहां है बंदर?'
'महाराज! नीचे देखो, वह मदारी और बंदर जा रहा है।'
राजा ने कर्मकर को आदेश दिया। मदारी को अंतःपुर में बुला लिया। बंदर का खेल देखा। पटरानी और बंदर दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। बंदर ने अपनी स्त्री को पहचान लिया और स्त्री ने अपने पूर्व पति को पहचान लिया।
बंदर ने देखा–पत्नी बहुत आराम का जीवन जी रही है और मुझे ऐसा दासकर्म करना पड़ रहा है। बड़ी समस्या है। पटरानी के मन में थोड़ी प्रियता की भावना जाग गई, सोचा- आखिर तो मेरा पति रहा है। इस प्रकार घूम रहा है, नाच रहा है, खेल रहा है। खाने को भी पूरा नहीं मिलता। उसने मदारी से पूछा-'मदारी ! बंदर बेचोगे ।'
राजा की पटरानी मांगे तब मदारी इनकार कैसे करे ? पटरानी ने अच्छा मूल्य देकर बंदर को खरीद लिया। उसे अपने महल में बांध दिया। बंदर ने सोचा- 'अब खाने को तो ठीक मिल जायेगा।' वह रानी के पास रहने लगा। वह प्रतिदिन राजा और रानी - दोनों के मधुर संबंधों को देखता है, उनके प्रेमालाप और सुखी जीवन को देखता है तो मन में बहुत दुःख पाता है, पश्चात्ताप करता है - 'देखो, मैंने कितनी मूर्खता की। अगर मैं इतनी मूर्खता नहीं करता, दूसरी बार डुबकी नहीं लगाता तो आज मुझे ये दिन क्यों देखने पड़ते? मैंने क्यों देव बनने की बात सोची? अगर मैं ऐसा नहीं करता तो आज मैं भी आदमी होता, यह मेरी पत्नी होती, परिवार होता, घर-बार होता । और पता नहीं मैं भी राजा बन जाता।' वह बहुत सोचता है, पछताता है पर अब कुछ होता नहीं है। वह जब जब राजा-रानी के प्रेमालाप को देखता तब तब अपने सिर को धुनता, उसकी आंखें आर्द्र हो जातीं। वह स्वयं के भाग्य को कोसने लगता ।
वह पटरानी भी उसकी दशा को देख द्रवित हो जाती, उसे अवसर देख समझाती - देखो ! तुमने लोभ ज्यादा किया था इसलिए बंदर बन गये। यह बात समझ में आई या नहीं आई - अतिलोभ नहीं करना चाहिए। वानर संकेतों से कहता–सब कुछ समझ में आ गया किन्तु अब क्या हो सकता है ? सिवाय पश्चात्ताप के और कुछ हाथ में आने वाला नहीं है।
पद्मश्री ने कथा का उपसंहार करते हुए कहा - 'प्रियतम ! मैं अनिष्ट बात नहीं कहना चाहती पर यह बात जरूर कहना चाहूंगी-जिस प्रकार अतिलोभ से बंदर को पश्चात्ताप हुआ। वह देव बनना चाहता था किन्तु वह मनुष्य से पुनः बंदर बन गया। कहीं वही गति आपकी न हो जाए।'
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गाथा
परम विजय की
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