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गाथा परम विजय की
रही हो, वह ठीक है। मैं अतिलोभ नहीं करूंगा किन्तु मैं सचाई को जानता ही मेरी मंजिल दूसरी है। मैं जहां खड़ा हूं, वहां से सचाई को देख रहा हूं इसलिए मैं अतिलोभ की बात को अस्वीकार करता हूं। तुम्हारे तर्क को मैं काटना चाहता हूं। तुम मेरी बात सुनो।'
जम्बूकुमार कहे कामिनी, काम न भोग जहर समान।
थोड़ा छोड़ नै घणा री वांछा करै, इसड़ो नहीं म्हारो ध्यान।। जम्बूकुमार बोला-'कामिनी! तुम कहती हो कि आप थोड़े को छोड़कर बहुत की इच्छा कर रहे हैं। यह तर्क ही तुम्हारा अनुपयुक्त है। मैंने तो इस काम-भोग को जहर के समान जान लिया है, देख लिया है इसलिए न तो मैं थोड़ा जहर पीना चाहता हूं और न मैं ज्यादा जहर पीना चाहता हूं। तुम ज्यादा की बात क्यों कर रही हो? अगर मैं यह चाहूं कि यहां मुझे काम-भोग थोड़ा मिला है इसलिए मैं तपस्या करूं, स्वर्ग में चला जाऊं और वहां स्वर्ग का सुख मिलेगा। अगर यह मेरा संकल्प हो तो तुम्हारा तर्क बिल्कुल सही है और मेरा चिन्तन गलत। किन्तु मैं तो यह मानता हूं-यह जो थोड़ा काम-भोग है यह भी जहर के समान है, एक जहर की प्याली के समान है और जो ज्यादा काम-भोग है. वह जहर का प्याला नहीं, जहर का पात्र है। ___मैं इस जन्म में भी काम-भोग नहीं चाहता और मरने के बाद अगले जन्म में भी काम-भोग नहीं चाहता। कामभोग में न मेरी रुचि है और न कोई इच्छा है।'-जम्बूकुमार के इस उत्तर ने पद्मश्री के तर्क को धारहीन बना दिया।
आचार्य भिक्षु के जीवन का संध्याकाल था। वे अनशन में लीन थे। खेतसीजी स्वामी ने आचार्य भिक्षु से कहा-'गुरुदेव! अब आप समाधिमरण की तैयारी कर रहे हैं। हम सबको छोड़कर स्वर्ग के सुखों में चले जाएंगे।' आचार्य भिक्षु ने तत्काल टोकते हुए कहा-'तुम क्या कहते हो? मैं स्वर्ग के सुखों की वांछा ही नहीं करता। उसकी कामना करने से ही पाप लगता है।'
जम्बूकुमार ने स्पष्ट शब्दों में कहा–'पद्मश्री! मैं नहीं चाहता कि मुझे काम-भोग ज्यादा मिले। अगर वह चाह होती तो तुम्हारी बात सही होती। मैं तो काम-भोग को छोड़ना चाहता हूं।'
'क्यों छोड़ना चाहते हैं आप?' 'उसका भी एक कारण है।' 'कारण क्या है?'
'ये जो काम-भोग हैं, उनका जो स्वरूप महावीर ने बताया है, उसे मैंने समझ लिया है। वह सचाई मेरे ध्यान में आ गई, महावीर की बात मेरे गले उतर गई। वह सचाई यह है
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