________________
V
2
गाथा परम विजय की
'समुद्रश्री! मैं इस शरीर का उपयोग एक नौका की तरह करना चाहता हूं। मैं शरीर के बंधन को स्वीकार नहीं करूंगा। केवल शरीर को एक नौका बनाकर इस संसार समुद्र को पार करना चाहता हूं।'
'तुम जरा ध्यान दो- हमने इस शरीर को बंधन बनाया है। हम उसके साथ इतने जुड़ गये हैं कि हमारे चारों ओर बंधन ही बंधन चल रहा है। हमने उसको खोलने का तोड़ने का प्रयत्न नहीं किया। अब इस बंधन को काटना है, नौका से चिपकना नहीं है।'
'समुद्रश्री! एक बार दो आदमी नौका पर बैठे। उन्हें पार जाना था। नौका पार पहुंच गई। एक आदमी नौका से उतर गया। दूसरा आदमी बोला- 'भाई! मैं तो नहीं उतरूंगा।'
उसने पूछा—'क्यों?'
उसने कहा- 'इस नौका ने हमारा कितना भला किया है। हमें यहां तक पहुंचा दिया। भला इस नौका को मैं कैसे छोड़ सकता हूं? वह नौका से चिपका हुआ बैठा रहा। नाविक परेशान हो गया। वह व्यक्ति भी परेशान हो गया। वहां बैठे-बैठे क्या खाये ? क्या पीये पर उसने पक्का आग्रह कर लिया कि नौका से चिपककर रहूंगा, नौका को छोडूंगा नहीं । तुम बताओ क्या ऐसा व्यक्ति समझदार होता है ?'
समुद्रश्री बोली-'प्रियतम ! जो नौका से चिपक जाता है, वह समझदार कैसे हो सकता है? मनुष्य नौका से चिपकने के लिए नहीं है। नौका का इतना ही उपयोग है कि वह पार पहुंचा दे और यात्री उतर जाए। नौका के साथ यात्री का इतना ही संबंध है।'
'समुद्रश्री! यह शरीर एक नौका है। इसके साथ इतना ही संबंध है कि यह शरीर हमें पार पहुंचा दे। यह नौका संसार समुद्र के पार पहुंचा दे। इसका इतना ही उपयोग करना है। इस शरीर से चिपककर नहीं रहना है, शरीर में मूर्च्छित नहीं होना है, शरीर में आसक्ति नहीं करना है। केवल नौका को काम में लेना है। मैं तो वही काम करना चाहता हूं। तुम स्वतंत्र हो, तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो।'
‘प्रियतम! आखिर आप प्राप्त सुखों को छोड़कर अप्राप्त सुख की आशा ही तो कर रहे हैं।'
'समुद्रश्री! प्राप्त सुख को छोड़कर अप्राप्त की इच्छा कौन करता है? मैं तो भौतिक सुख की इच्छा बिल्कुल नहीं करता। तुम जिस सुख की चर्चा कर रही हो, वह सुख मुझे मान्य ही नहीं है। मैं उस सुख को सुख मानता ही नहीं हूं।'
समुद्रश्री ने साश्चर्य पूछा—'प्रियतम ! यह कैसे ? जो सुख है, वह प्रत्यक्ष है। उसे आप कैसे अस्वीकार कर रहे हैं?'
'समुद्रश्री! तुम इस तत्त्व को नहीं जानती - वह सुख, जिसके पीछे दुःख निरन्तर चल रहा है, वस्तुतः सुख नहीं है। वह ऐसा सुख है, जब तक न भोगो, तब तक सुख लगता है। यदि उसको भोगो तो उसके पीछे दुःख आता है। दुःख, जिस सुख के पीछे-पीछे चल रहा है, मैं उसे सुख नहीं मानता। मेरी कल्पना का सुख वह है जिसके साथ दुःख का कोई अनुबंध नहीं है। जिसके न पहले दुःख हो और न पीछे दुःख, मैं उस सुख को सुख मानता हूं। तुम जिस सुख की बात कर रही हो, मैं उसकी न तो इस लोक में इच्छा करता और न परलोक में। तुम्हारा बग किसान का दृष्टांत कहां काम आयेगा ? मैं बग किसान जैसा मूर्ख नहीं हूं जो बाजरी की खड़ी फसल की कटाई कर ईख (सेलड़ी) बोने का प्रयत्न करूं।'
१७६