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'समुद्रश्री! यह शरीर पिंजरा ही तो है । यह ऐसा विचित्र पिंजरा है, जिसके नौ द्वार खुले हैं। उस पिंजरे में यह जीव रह रहा है। इस पिंजरे में रहना मुझे अब पसंद नहीं है। मैं इस बंधन को तोड़ना चाहता हूं।' प्रियतम की इस आध्यात्मिक भाषा को समुद्रश्री ने विस्फारित नेत्रों से सुना ।
जम्बूकुमार ने एक ओर कथा-वृत्त प्रस्तुत करते हुए कहा'समुद्रश्री! तुमने यह बात सुनी होगी- एक बार सात मित्र एक साथ चले। नदी के इस तट को पार कर उस तट पर जाना था। रात का समय था । उन्होंने शराब पी ली। सब शराब में मस्त बन गए। बेभान से हो गए। वे अपनी धुन में चले जा रहे थे। तट पर पहुंचे तो देखा - नौका तो खड़ी है पर नाविक नहीं है। कुछ देर तक प्रतीक्षा की। सोचा- कोई नाविक आए तो उस पार चले जाएं पर कोई नाविक नहीं आया। उन्होंने निश्चय किया- हम नाविक की
कब तक प्रतीक्षा करेंगे? नौका सामने खड़ी है। हम भी नौका चलाना जानते हैं। आओ बैठ जाएं।
इस निश्चय के साथ सारे नौका में बैठ गए। दो व्यक्तियों ने हाथ में पतवार ली और नौका को खेना शुरू किया, चलाना शुरू किया। चलाते गये, चलाते गये। वे नशे में मस्त और धुत थे। रात भर चलाते रहे। आखिर सुबह होने को आई। थोड़ा उजला-उजला प्रभात सा हुआ । देखा - हम तट पर पहुंच गए हैं। ध्यान से उन्होंने देखा तो आश्चर्य से भर गए- अरे ! हम नदी के उसी तट पर खड़े हैं, जिस तट पर चढ़े थे। हमने रात भर नौका को खेया फिर भी हम दो कदम आगे नहीं बढ़े। उनका नशा भी थोड़ा उतरा। एक व्यक्ति बोला—यह कैसे हुआ? रात-भर नौका को खेया और पहुंचे कहीं नहीं। जहां थे, वहां रहे। क्या हुआ ? खोज करो। वे नौका से नीचे उतरे। चारों तरफ से ध्यान दिया तो देखा - नौका चारों ओर से बंधी हुई है। रस्सा खोला नहीं और नाव को खेते चले गये। कैसे पहुंचते मंजिल के पास ?'
जम्बूकुमार बोला- 'समुद्रश्री! मैं उस रस्से को खोलना चाहता हूं। मैं वैसा मूर्ख बनना नहीं चाहता । मैं नशे में धुत नहीं हूं कि सारी रात को नौका खेऊं, रस्सा खुले नहीं और नौका वहीं की वहीं खड़ी रहे। मैं इस बंधन को तोड़ना चाहता हूं।'
'समुद्रश्री! तुमने महावीर की इस शाश्वत वाणी को सुना है
शरीर माहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ।।
यह शरीर है नौका। यह जीव है नाविक और यह संसार है समुद्र । जो जागरूक हो जाता है, महर्षि हो जाता है, महान् लक्ष्य बना लेता है, महैषी बन जाता है, वह उस समुद्र को पार कर देता है।'
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गाथा
परम विजय की
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