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विदाई की वेला आई। ठाट-बाट से बरात को विदा दी। सब कुछ हो गया। बाहर में चारों ओर उल्लास है पर भीतर में एक खटक भी है। कन्याओं के पिता-माता के चेहरों पर तो मुस्कान है पर भीतर में मुस्कान नहीं है। बाहर से उल्लास टपक रहा है पर भीतर में उल्लास नहीं है। वे इस चिन्ता में डूबे हैं अभी तो इतना उल्लास हो रहा है। आखिर क्या होगा? जम्बूकुमार आज विवाह के पश्चात् अपने घर पहुंचेगा, कल क्या होगा? एक अप्रिय और वेदनामय चित्र सामने है। डायचो तो दीनो अति घणो, पर सोच घणो घट माय। खटक मिटी नहीं ए, रखे ऊभी देलो छिटकाय।
म्हारी पुत्र्यां भणी ए॥ दहेज तो बहुत दे दिया पर खटक नहीं मिटी।
एक शल्य मन को साल रहा है। तीन प्रकार के शल्य बताए गए माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्या दर्शन शल्य। भीतर में शल्य सालता है। शल्य जब तक खटकता है, अच्छा जीवन नहीं होता।
चूर्णि साहित्य की कथा है। राजा का घोड़ा बहुत बीमार हो गया। बहुत इलाज करवाए। कुशल वैद्य आए, इलाज किया पर ठीक नहीं हुआ। एक दिन एक अनुभवी वैद्य आया, देखा, उसने पूछा-'क्या घोड़ा कभी युद्ध में गया था?'
'हां, कुछ मास पहले युद्ध में गया था।' वैद्य बोला-'समस्या समझ में आ गई, निदान हो गया।'
जब तक निदान नहीं होता, इलाज अच्छा हो नहीं सकता। गलत निदान होता है तो इलाज गलत हो जाता है। मलेरिया है और इलाज टाइफाइड का शुरू कर दिया। टाइफाइड है और इलाज शुरू कर दिया मलेरिया का। बीमारी जटिल हो जाती है, रोगी की दशा भी बिगड़ जाती है। वैद्य ने शस्त्र मंगवाए, पेट को चीरा। बाण का नुकीला भाग भीतर में था। उसने कहा-दवाई लगेगी कैसे? भीतर में तो शल्य है। जब तक शल्य है तब तक दवा लगेगी नहीं। शल्य को निकाला, दवा दी। कुछ दिनों में घोड़ा ठीक हो गया।
उमास्वाति ने व्रती की परिभाषा करते हुए लिखा-निःशल्यो व्रती। व्रती कौन? व्रती वह है जो निःशल्य है। माया का शल्य, मिथ्या दृष्टिकोण का शल्य अथवा निदान का शल्य भीतर में है और व्रत की आराधना करो तो व्रत आयेगा नहीं। पहले निःशल्य बनो, शल्य को बाहर निकाल दो।
गाथा परम विजय की
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