________________
१६०
शांतिनाथ चरित्र का प्रसंग है। महाराजा की रानी संन्यासी के पास जाती थी। संन्यासी ने कोई ऐसी औषधि दे दी कि उसको संन्यासी के सिवाय कोई दिखाई नहीं देता । समस्या पैदा हो गई। वह महल में आती और फिर जंगल की ओर दौड़ने के लिए तैयार हो जाती । राजा ने सोचा-क्या हो गया? बहुत लोगों को बुलाया, उपचार सफल नहीं हो रहा था। रानी को निरंतर वही दिखाई दे रहा है। एक अनुभवी वैद्य आया, उसने देखा, कहा- जो दवा दी है, वह मज्जा तक चली गई है। जब तक मज्जा का शोधन नहीं होगा, इसका समाधान नहीं होगा। आज भी ऐसा होता है। कोई जानकार व्यक्ति ऐसा प्रयोग करा देता है कि बात मज्जा तक पहुंच जाती है, फिर उसे वही - वही दिखाई देता है । वैद्य ने मज्जा का शोधन किया, समस्या विलीन हो गई।
आचार्य भिक्षु ने लिखा- जिसकी मज्जा भीग गई है, उसकी वाणी कैसे पलटे ? जम्बूकुमार की मज्जा इस संकल्प से भीग गई -मुझे मुनि बनना है, आत्मा का साक्षात्कार करना है। यह कोरी मौखिक वाणी नहीं रही। वह भीतर की आवाज बन गई। अन्दर की आवाज का मतलब वह आवाज है जो मज्जा का स्पर्श कर ले। मुंह की बात विश्वसनीय नहीं होती । व्यक्ति कहता है और पलट जाता है। अरे! कल तो कहा था, आज पलट गया। उसका जबाव होता है-कल कहा था, आज तो नहीं कहा। वही वाणी बदलती है, जो कोरी मुंह से आती है।
प्राचीन युग में बारठजी विरुदावली गाते थे। एक बारठ ने सेठ की विरुदावली गाई। सेठ खुश हो गया । सोचा - विचारा नहीं, भीतर तक नहीं गया। मुंह से वाणी निकल गई, बोला- कल आना, एक मन अनाज दूंगा । बारजी खुश हो गये, सोचा–एक मन अनाज काफी दिन तक चल जाएगा। दूसरा दिन । सूरज उगा। सेठजी दुकान पर आकर बैठे। बारठजी आये, बोले- 'सेठ साहब! नमस्कार!'
सेठ ने कहा- 'बोलो भाई, क्यों आये हो?'
'कल आपने कहा था- एक मन अनाज दूंगा, अब आप लाइए। '
'कौन-सा अनाज ?'
'कल तो आपने कहा था। '
'भोले आदमी हो, तूने बोलकर मुझे राजी किया और मैंने बोलकर तुम्हें राजी किया। लेना-देना कुछ नहीं है। चले जाओ।'
वह वाणी पलट जाती है जो भीतर से नहीं निकलती, केवल मुंह
m
गाथा परम विजय की
m
&