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मनुष्य दिखाई देता है। उसका चेहरा, रंग, रूप, लंबाई-चौड़ाई दिखाई देती है। स्थूल शरीर दिखाई देता है, इंद्रियां दिखाई देती हैं। स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर है, वह दिखाई नहीं देता । सूक्ष्म शरीर के भीतर आत्मा है, वह भी दिखाई नहीं देती। इंद्रिय चेतना सामने आती है किन्तु इंद्रियों से परे जो अतीन्द्रिय चेतना है, वह हमारे सामने नहीं है, इसीलिए हमारा व्यक्तित्व दो रूपों में बन गया - एक स्थूल व्यक्तित्व, दूसरा सूक्ष्म व्यक्तित्व । एक इंद्रिय चेतना से प्रभावित व्यक्तित्व और एक अतीन्द्रिय चेतना से भावित व्यक्तित्व। जहां इंद्रिय चेतना बोलती है वहां सोचने का प्रकार दूसरा होता है, करने का प्रकार भी दूसरा होता है। जहां अतीन्द्रिय चेतना काम करती है वहां सोचने और करने का प्रकार बदल जाता है। जम्बूकुमार सूक्ष्म का प्रतीक और अतीन्द्रिय चेतना का प्रतिनिधि बना हुआ है। जो नवोढ़ाएं सामने बैठी हैं, वे स्थूल जगत् और इंद्रिय चेतना का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। एक ओर त्याग से भोग की ओर खींचने का प्रयत्न हो रहा है, दूसरी ओर भोग से त्याग की ओर आकृष्ट करने का संकल्प पल रहा है।
ज्येष्ठा समुद्रश्री ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- 'प्रियतम ! आपका और हमारा यह विवाद समाप्त नहीं हो रहा है। आप अपने आग्रह पर अड़े हुए हैं और हम अपने आग्रह पर अड़ी हुई हैं। वस्तुतः आप गलत रास्ते पर जा रहे हैं और हम सही रास्ते पर ।'
हर व्यक्ति दूसरे को गलत रास्ते पर और अपने आपको सही रास्ते पर मानता है।
'प्रियतम! ऐसा लगता है आपमें समझ भी थोड़ी कम है। आप बड़े घर में पैदा अवश्य हो गये । आपका बड़ा प्रतिष्ठित परिवार है, अपार सम्पदा है, सब कुछ है पर इनके साथ समझ का संबंध नहीं है । संपदा का होना अलग बात है और समझ का होना अलग बात है। धन, वैभव आदि मिला पर समझ नहीं मिली। अगर आपमें थोड़ी भी समझ होती, सकारात्मक चिन्तन होता तो आप ऐसा निर्णय नहीं लेते, ऐसी बात नहीं सोचते। हमें आपका चिन्तन सही नहीं लग रहा है।'
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गाथा परम विजय की