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आचार्य सुधर्मा ने वैराग्य भाव के विकास की अभिप्रेरणा देते हुए कहा यदि तुम अभय रहना चाहते हो, भय से मुक्त होना चाहते हो तो वैराग्य के सिवाय कोई उपाय नहीं है। केवल वैराग्य ही ऐसा तत्त्व है, .olone जहां कोई भय नहीं है। अन्यथा सर्वत्र भय है।
भोगे रोगभयं कले च्यति भयं वित्ते नृपालाद भयम्, मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाः भयम्। शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतांतात् भयम्,
सर्वं वस्तु भयान्वितं जगदहो वैराग्यमेवाऽभयम्।। भोग में रोग का भय है। भोग के साथ रोग लगा हुआ है। बहुत सारे रोग भोग के कारण होते हैं। रसनेन्द्रिय का भोग बहुत रोग पैदा करता है। अन्य इंद्रियों के भोग भी रोग पैदा करते हैं।
सुकरात से पूछा गया मनुष्य को संभोग कितनी बार करना चाहिए? उसने कहा–जीवन में एक बार। 'यह संभव नहीं हो तो....' 'वर्ष में एक बार। 'यह भी संभव न हो तो....' 'महीने में एक बार।
गाथा 'यह भी संभव न हो तो....'
परम विजय की सुकरात ने मार्मिक शब्दों में कहा-'कफन सिरहाने रख लो, फिर चाहे जैसा करो।' भोग के साथ रोग का अनुबंध जैसा है।
कुले च्युति भयम् व्यक्ति को कुल का गौरव होता है। मेरा कुल बहुत बड़ा है किंतु पता नहीं वह कब समाप्त हो जाए, भय लगा रहता है। ___ वित्ते नृपालाद् भयम् व्यक्ति सोचता है मेरे पास बहुत धन है पर उसे राजा का भय सताता रहता है। आजकल इनकमटैक्स के अधिकारियों का भय रहता है। धन के सरंक्षण की इतनी चिन्ता होती है कि शायद आज के उद्योगपति अभय की नींद तो कम ही ले पाते होंगे। हमेशा छिपाने की बात, संग्रह करने की बात लगी रहती है। निरंतर एक चिंतन, एक तनाव मन में बना रहता है। __धन के भागीदार भी बहुत हैं। कोई भी अकेला आदमी भोग नहीं सकता धन को। धन के साथ न जाने कितने भागीदार जुड़े हुए हैं।
दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणाः मुष्णन्ति भूमिभूजो। गृह्णन्ति छलमाकलय्य हुतभुग् भष्मीकरोति क्षणात्।। अंभः प्लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ते हठात्। दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग् बह्वधीनं धनम्।।
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