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व्यक्ति और समुदाय। व्यक्ति का मतलब है अकेला और समुदाय का अर्थ है संगठन। वैयक्तिकता और सामुदायिकता, अकेलापन और संगठन दोनों का अपना-अपना मूल्य है। हम हर विषय पर अनेकांत की भाषा में सोचते हैं और उसी भाषा में बोलते हैं। किसी का अतिरिक्त मूल्य नहीं। तिनका और बुहारीदोनों का अपना-अपना मूल्य है। दांत में कुछ फंस गया। वहां तिनके का मूल्य है, बुहारी का मूल्य नहीं है। घर में कचरा आ गया, बहार कर साफ करना है तो वहां तिनके का मूल्य नहीं है। वहां कोई हाथ में एक गाथा तिनका लेकर बुहारना शुरू करे तो कैसा लगेगा? उसके द्वारा काम भी नहीं होगा। वहां बुहारी का मूल्य है। परम विजय की सैकड़ों हजारों तिनके मिलकर इकट्ठे हुए, झाड़ बना और वह कचरे को साफ करता है।
व्यक्ति का भी अपना मूल्य है और समुदाय का भी अपना मूल्य है। यह जो एक धारणा बन गई मैं अकेला ही सब कुछ करूं, वह उपयुक्त नहीं है। इस धारणा ने जीवन को बहुत नीरस बना दिया। जैन परम्परा में साधना के अनेक सूत्र रहे। एक व्यक्ति जिनकल्प की साधना करता है, एकलविहारी होता है। अकेला रहकर साधना करता है किंतु साधना के बाद फिर गण में आ जाता है। आखिर गण में ही रहता है, समुदाय और संगठन में रहता है। संगठन में शक्ति है। सामुदायिकता के जीवन का अलग ही आनन्द होता है। समुदाय के बिना वह आनन्द मिलता नहीं है। ___ आठों कन्याओं ने सामुदायिक रूप से, एक साथ एक स्वर में अपने माता-पिता से कहा-हमारा दृढ़ निश्चय है, दृढ़ संकल्प है कि विवाह करेंगी तो जम्बूकुमार के साथ करेंगी। सामुदायिक स्वर में एक ताकत होती है। अगर सर्वसम्मति नहीं होती, बहुविध मत होता तो कुछ का स्वर होता-हम उससे विवाह नहीं करेंगी जो दीक्षा लेने वाला है। हम उसके साथ नहीं जाएंगी जो पहली रात को ही संबंध तोड़ने की बात कर रहा है। आठों कन्याओं के एक स्वर से माता-पिता को प्रसन्नता हुई। उन्होंने सोचा-बहत अच्छा निर्णय किया है। हमारी उलझन टल गई।
दोनों ओर से तैयारी शुरू हो गई, वैवाहिक कार्यक्रम शुरू हो गए। पुराने युग में ठाठ-बाट भी बहुत चलता था। आज यह धारणा प्रबल है कि विवाह सादगी से होना चाहिए किंतु पुराने युग में सादगी की बात
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